Tuesday, 4 October 2016

पशु बलि की निंदा

हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा पशुबलि की परंपरा  निंदनीय

पी के सिद्धार्थ
www.pksiddharth.in

मित्रो, हिंदू धर्म के कई मत हैं। तीन 'त्रिदेव हैं - ब्रह्मा-सरस्वती, विष्णु-लक्ष्मी, शिव-शक्ति। ब्रह्मा-सरस्वती के जो उपासक हैं, वे कोई पशु-बलि नहीं देते। विष्णु-लक्ष्मी के उपासक भी पशु-बलि नहीं करते। शिव के मंदिरों में भी पशु बलि नही होती। देश के अधिकांश मंदिरों में इस प्रकार बलि नहीं होती। सिर्फ दुर्गा काली के मंदिरों में पशु-बलि की प्रथा नवरात्रि के अवसर पर देखी जाती है। बंगाल से बाहर बहुत कम मंदिर ऐसे हैं जहाँ काली या दुर्गा मुख्य देवता के रूप में पूजित हैं। यों तो दुर्गा देवी की मूर्ति अनेकों मंदिरों में पायी जाती है मगर मुख्य देवता के रूप में नहीं। उन मंदिरों में पशु बलि नहीं देखी जाती। अर्थात कम ही मंदिरों में पशु बलि का प्रचलन है।

कम हो या ज्यादा, धर्म के नाम पर पशु बलि निंदनीय है। इसके कई कारण हैं।

जल के कई रूप होते हैं : वह बर्फ बन कर ठंढा होता है, जल बन कर शीतल, और वाष्प रूप में गरम। इसी प्रकार देवी शक्ति के भी कई रूप हैं। दुर्गा का रूप काली से भिन्न है। दुर्गासप्तशती की मानें तो दुर्गा में नारायणी या लक्ष्मी की भी शक्ति समाहित है : 'गौरी नारायणी नमोस्तुते'। ऐसे में दुर्गा को पशु बलि देने से नारायणी रूप उद्विग्न और रुष्ट हो सकता है। फिर यह समझना भी गलत है कि बलि देने से देवी तुष्ट हो कर मुरादें अधिक पूरी करती है। जहाँ तक ज्ञात है, सबसे अधिक मुरादें पूरी करने वाली देवी तो वैष्णव देवी लोकमत में मानी जाती हैं। इतनी बड़ी संख्या में कष्ट सह कर लोग किसी दूसरे शक्ति पीठ में नहीं जाते। दक्षिणेश्वर में भी नहीं। अगर देवी की शक्ति पशुओं के रक्त से जागृत होती तो वैष्णो देवी तो नितांत अशक्त होतीं क्योंकि वहां सिर्फ नारियल की 'बलि' होती है।

अगर देवी का कोई ऐसा रूप है जो सिर्फ गौरी या शिवा का रूप है और जिसे आप बलि देते हैं, तो एक बात का जवाब चाहिए। जब पति (शिव), जो 'पशुपति' कहलाते हैं, बलि नहीं ग्रहण करते तो उनके अर्धांगिनी बलि कैसे ग्रहण कर सकती हैं?  वास्तव में कुछ वामपंथी (कम्युनिस्ट नहीं, यह उपासना का एक मार्ग है) तंत्र मार्गी अशुभ सिद्धियां जल्दी प्राप्त करने के लिए पिशाचिनियों की पूजा करते हैं और उन्हें गरिमा प्रदान करने के लिए देवी का दर्जा देकर पशु रक्त से तृप्त करते हैं।

उपर्युक्त बातों पर विचार करें।

डरें नहीं! ईश्वर से डरने की नहीं प्रेम करने की ज्यादा जरुरत है। अगर आपकी देवी को रक्त दिए बिना आपका मन नहीं मनाता तो निर्दोष पशु का रक्त क्यों देते हैं? अपना रक्त दीजिये। मगर इसके लिए अपने को क्षति न पहुंचाएं। बलि के दिन, पशु-बलि के बदले, हस्पताल में जा कर रक्त दान करें, और उसी में से थोडा रक्त ला कर देवी को अर्पित करें! मगर निर्दोष पशुओं की हत्या न करें।

मुस्लमान भाइयों को भी बकरीद के दिन ऐसा ही करना उचित है। खुदा ने अब्राहम को एक विशेष सन्दर्भ में एक पशु की बलि के लिए कहा था। यह नहीं कहा कि उसकी याद में हर साल लाखों पशुओं की क़ुरबानी दी जाय। यह परंपरा कुछ लोगों ने शुरू कर दी जो आज तक चली आ रही है। हर परंपरा की गुलामी न करते हुए अपना स्वविवेक का इस्तेमाल सभी को करना उचित है, हिन्दू हो या मुस्लमान।

मैं आप सभी से अपील करता हूँ कि उस हर एक मंदिर का बहिष्कार करें जहाँ पशु बलि होती है। पुजारियों के पेट पर प्रहार होगा तभी वे इस कुप्रथा से विरत होंगे।

पी के सिद्धार्थ
5 अक्टूबर, 2016

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