इंसान और पशु-पक्षी - 1
वर्दी में एक क्रुद्ध बुद्ध : एक साथी पुलिस-अधिकारी के संस्मरण।
पी के सिद्धार्थ
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एक बार जब मैं त्रिपुरा पुलिस मुख्यालय में सहायक पुलिस महानिदेशक के पद पर पस्थापित हुआ तो मेरे पास एक फ़ाइल आई जिसमें एक युवा आई पी एस अधिकारी श्याम चतुर्वेदी के विरुद्ध एक शिकायत आई थी कि उन्होंने पशु-पक्षियों के प्रति क्रूरता प्रदर्शित करने के कारण एक व्यक्ति की पिटाई कर दी। अतः उनके विरुद्ध कार्रवाई की अनुशंसा की गयी थी। यों मेरे पद का नाम बहुत बड़ा था, मगर वास्तव में यह पद एस पी या आरक्षी अधीक्षक के स्तर का ही पद था जो पुलिस मुख्यालय में सबसे कनीय पद हुआ करता है। इसका काम होता है डी जी पी या पुलिस महानिदेशक की सहायता करना। मैंने पाया की इस नए-नए आई पी एस की यह पहली पोस्टिंग थी। ध्यान रहे कि लोगों की पिटाई कर देना तो पुलिस अधिकारियों का अलिखित मौलिक अधिकार माना जाता रहा है। उत्तर प्रदेश में मुलायम जी के आने के बाद तो दो-चार लोगों को 'ठोक' देना (पीट-पीट कर हत्या कर देना) भी पुलिस अधिकारियों के अलिखित मौलिक अधिकारों में शामिल कर लिया गया है। मगर ध्यान रहे कि यह बिहार या उत्तर प्रदेश नहीं, त्रिपुरा राज्य था जहाँ कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री नृपेन चक्रवर्ती का शासन था, और जहाँ आप सामान्य नागरिक को पीटना तो छोड़ दीजिये, उसके साथ मौखिक दुर्व्यवहार भी नहीं कर सकते थे। ऐसे माहौल में किसी को पशुओं से दुर्व्यवहार के लिए पीट देने की घटना ने मेरी उत्सुकता जगा दी। मैंने ध्यान से शिकायत पढ़ी। यह हिंसक बुद्ध कहाँ से पैदा हो गया, मैंने सोचा! बुद्ध की करुणा और पशु-पीड़क के प्रति पुलिस की हिंसात्मकता!!
हुआ यह था कि एक सज्जन एक दरबे में मुर्गियों को बुरी तरह ठूस कर क़त्ल करने ले जा रहे थे। चतुर्वेदी ने उन्हें रोका और और पशुओं के प्रति क्रूरता-निरोधक कानून का हवाला देते हुए उनकी क्लास ली। अब नृपेन दा की प्रजा को भला यह पुलिस की 'दादागिरी' कैसे भाती? उसने करारा और बत्तमीजी पूर्ण जवाब दे दिया। बस फिर क्या था। चतुर्वेदी ने उनको दो-चार थप्पड़ जड़ दिए। यह सज्जन, लगता है, सी पी एम के आदमी थे। तुरंत सी पी एम पार्टी ऑफिस में शिकायत पहुँच गयी, और उनके माध्यम से एस पी के पास शिकायत दर्ज कर दी गयी। ध्यान रहे कि कम्युनिस्ट शासन में पार्टी संगठन का बहुत महत्त्व होता है। सो एस पी साहब ने चतुर्वेदी के विरुद्ध उचित कार्रवाई की अनुशंसा कर चिठ्ठी पुलिस महानिदेशक के कार्यालय में भेज दी। वह एक फ़ाइल में सजा कर मेरे माध्यम से महानिदेशक को भेजने के लिए लायी गयी।
मैंने पशु-पक्षियों के विरुद्ध क्रूरता-निरोधक कानून की एक प्रति मंगवाई और उसे पढ़ा। मैंने पाया कि चतुर्वेदी की आपत्ति सही थी। इस कानून में यह लिखा है कि आप मुर्गियों को (शुक्र है, मुर्गों को भी) दरबे में प्रति मुर्गी कितने वर्ग फ़ीट स्थान देंगे कि उसे घुटन न हो, ज्यादा गर्मी न लगे। पशु-पक्षियों की पीड़ा और असुविधा के प्रति इतनी संवेदनशीलता दिखाने के लिए मेरे मन में यह कानून बनाने और बहुमत से पास करने वाले संसद-सदस्यों और राजनीतिज्ञों के प्रति सहसा अगाध श्रद्धा उमड़ी, मगर कानून की छोटी-सीे वह किताब ख़तम होते-होते जब मैंने यह देखा कि पशुओं की हत्या करने पर कोई प्रतबंध नहीं लगाया गया तो मेरी क्षणिक श्रद्धा तिरोभूत हो गयी। यह भी नहीं कि क़त्ल करने के पहले जानवर या पक्षी को बेहोश करना जरुरी किया गया हो, या गला धीरे-धीरे रेत कर मारने की प्रथा पर कोई प्रतिबन्ध लगाया हो ताकि पशु-पक्षियों को दर्द का अनुभव न हो, या कम दर्द हो! मांस-भक्षण के लिए पशु-हत्या बंद करने से तो वे रहे, क्योंकि उनमें से अधिकांश को मांसाहार के बिना रहा नहीं जाता, और उससे भी महत्त्वपूर्ण यह था कि यहाँ लोकतंत्र है, कोई तानाशाही नहीं कि आप जनता की 'फ़ूड-हैबिट्स' में मनमाने हस्तक्षेप करें। इसलिए जनता को और उनके जनप्रनिधियों को मन-ही-मन बाएं हाथ से सलाम कर मैने दाहिने हाथ से कलम उठाई। मैंने फ़ाइल में लिखा : "इस ज़माने में, जब मनुष्यों के प्रति क्रूरता भी किसी पुलिस अधिकारी के ह्रदय में कोई संवेदना उत्पन्न नहीं करती, यह एक स्वागत-योग्य बात है कि पशु-पक्षियों के प्रति क्रूरता ने एक युवा पुलिस अधिकारी के दिल में सहनुभूति की संवेदना उत्पन्न की। दूसरी स्वागत-योग्य बात यह है कि जिस ज़माने में पुलिस अधिकारी सामान्य कानून भी गंभीरता से पढ़ना जरुरी नहीं समझते, एक युवा अधिकारी ने पशु-पक्षियों के प्रति क्रूरता-निरोध विषयक अनावश्यक-सा कानून ध्यान से पढ़ा। इन दोनों बातों के लिए इस युवा अधिकारी को प्रशस्ति-पत्र देना चाहिए। रही बात ऐनिमल राइट्स की रक्षा के लिए ह्यूमन राइट्स का उल्लंघन करने की, तो अभी नया-नया अधिकारी है, उसे फोन से प्यार से यह सलाह देना काफी होगा कि कड़ी कार्रवाई करे मगर कानून के दायरे में रह करे। इतना काफी होगा।"
पुलिस महानिदेशक हमारे समय में एक बहुत ऊँची और भारी-भरकम शक्शियत हुआ करते थे। उस समय तो उनका शारीरिक वजन अगर सौ किलो से कम होता था तो लोग उन्हें इज्जत की नज़र से नहीं देखा करते थे। जाहिर है कि इतना वज़न प्राप्त करने के लिए और महानिदेशक के पद की गरिमा बनाये रखने के लिए मुर्गे खाना निहायत जरुरी था। इसलिए चतुर्वेदी के मुर्गे, जो यूँ भी कानूनन क़त्ल होने के लिए ही ले जाये जा रहे थे, अगर क़त्ल होने के पहले दो-चार घंटे थोड़ी घुटन में ही गुज़ार लेते तो कौन-सी आफत आ जाती! मगर कभी-कभी नए खब्ती अधिकारी आ ही जाते हैं, और उनकी अनदेखी कर आगे बढ़ जाना ही महानिदेशक के लिए बुद्धिमानी होती है।
यों भी मैंने कम ही पुलिस महानिदेशकों को फ़ाइल में दस्तखत करने के अलावा कुछ और करते, यानि नीचे के अधिकारियों की अनुशंसा के खिलाफ जाकर कोई टिपण्णी करते देखा है। सो मेरा प्रस्ताव स्वीकृत हो कर आ गया, जिसे एस पी को 'आवश्यक क्रियार्थ' भेज दिया गया!
मैंने बचपन में ही बुद्ध और उनके एक भाई के बीच का यह विवाद पढ़ा था कि जिसने (भाई ने) हंस को घायल किया और जिसने (बुद्ध ने) उस हंस की चिकित्सा और सेवा-सुश्रुषा की, इनमें किस का अधिकार उस हंस पर अधिक होगा। बालक बुद्ध की इस कहानी ने ही मेरे मन में पशु-पक्षियों के प्रति करुणा की नींव डाली थी। इसलिए पुलिस की वर्दी में इस आधुनिक बुद्ध को देख कर मुझे हार्दिक ख़ुशी हुई। लेकिन पशुओं के प्रति दया और निर्दयता के अभी बहुत से प्रसंग आने वाले दिनों में मुझे अभी देखने बाकी थे।
पी के सिद्धार्थ
07.10.2016
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