Sunday, 2 October 2016

पाकिस्तान में भारत का सर्जिकल ऑपरेशन!

मेडिसिन या सर्जरी? पाकिस्तान में भारत के सर्जिकल ऑपरेशन का प्रसंग।

पी के सिद्धार्थ
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पाकिस्तान के क्षेत्र में भारतीय सेना ने घुस कर 'सर्जिकल' ऑपरेशन कर कई आतंकवादी ठिकानों को नेस्तनाबूत किया, अगर यह पूरी तरह सत्य खबर है, तो अच्छी खबर है। मगर यह बहुत देर से उठाया गया कदम है।

यह एक सहज बुद्धि की बात है कि जब किसी मर्ज का इलाज़ बहुत दिनों तक दवा से न हो पाये, और सर्जरी से उसका इलाज़ संभव हो, तो सर्जिकल ऑपरेशन बिलकुल वाजिब होता है।

मार्क्स ने कभी क्लास कैरेक्टरिस्टिक्स की बातें की थीं। हम अनुभव से जानते हैं कि साधारणतः इसमें एक हद तक सचाई है। न केवल बुर्जुआ और प्रोलेटेरियत वर्गों की कुछ सामान्य विशेषतायें होती हैं, बल्कि किसी भी वर्ग की होती हैं, जो उस वर्ग के सभी लोगों में नहीं भी हों, तो भी कामोबेश उस वर्ग के अधिकांश लोगों में पायी जाती हैं। इसी प्रकार विभिन्न राष्ट्रों की भी कुछ चारित्रिक विशेषतायें होती हैं। इस नाते पाकिस्तान और हिंदुस्तान की भी अपनी चारित्रिक विशेषतायें हैं। इज़राइल की अपनी अलग विशिष्टता है, अमेरिका की अलग। अमरीकी सेना का भी एक विशेष चरित्र है। उन्हें  जंग में बैक-अप के रूप में आइसक्रीम फैक्टरियां चाहिए होती हैं। 1980  में ईरान में अमरीकी दूतावास में फंसे 52 अमरीकियों को छुड़ाने के लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमि कार्टर ने अमरीकी वायुसेना से जो 'सर्जिकल ऑपरेशन' ऑपरेशन ईगल क्ला के नाम से कराया था वह रेगिस्तानी जमीन पर फ्लॉप हो गया। यह बाद में कार्टर की हार का भी कारण भी बना। तब इज़राइल ने अमेरिका पर चुटकी लेते हुए बयान दिया था कि अगर ऐसे ऑपरेशन आपको नहीं आते तो हमसे कहा होता, हम सफल ऑपरेशन ऑर्गेनाइज कर देते। अमरीकी सेना ने सबक लिया और ओसामा बिन लादेन के सफाये के लिए किये गए सफल अमरीकी ऑपरेशन में इज़राइल की  खुफिया सलाह ली।  हिंदुस्तान की सेना सुविधाभोगी सेना नहीं है, और जांबाजी उसमे बची हुई है। मगर भारत के राष्ट्रीय चरित्र में काफी भीरुता घर कर गयी है। अहिंसा के लगातार प्रवचनों ने भारतीय जनता और उसी में से निकले हुए सुविधाभोगी राजनेताओं को अत्यंत भीरु बना दिया है। वे न तो होम फ्रंट पर कोई कड़े और निर्णायक कदम उठा सकते हैं न विदेश के फ्रंट पर। इसलिए सेना की जांबाजी का कोई उपयोग आज तक नहीं हो पाया।

अगर सेना 50-50 वर्षों तक कोई छोटा पराक्रम-भरा ऑपरेशन भी न करे तो उसके सुस्त, सुविधाभोगी और अपराक्रमी हो जाने का खतरा बना रहता है, ऐसा हमारे सेना नायक मानते हैं, और यह सत्य है। मगर हमारे राजनेता सामान्यतः भीरू और निर्णय को टालते रहने में महारत रखते हैं। नेहरू भी इस भीरुता के शिकार थे। गांधी ने अहिंसा का पुजारी होते हुए भी कभी भीरुता नहीं दिखाई। मगर सभी गांधी नहीं हो सकते। अहिंसा, अहिंसा और अहिंसा! इसकी परिणति, जैसा कि वी इस नायपॉल 'इण्डिया, अ वुंडेड सिविलाइजेशन' में लिखते हैं, भीरुता में ही हुई। इसीलिए, अगर पटेल न होते तो देश भीतर भी टुकड़ों में बंटा रहता।

मोदीजी भी बहुत दिन यह छोटा-सा निर्णय भी टालते रहे।आज जो 3 किलोमीटर सेना को उन्होंने घुसने की अनुमति दी, जो वह बहुत दिनों से मांगती रही है, तो वह उनके प्रधान मंत्री होने के पूर्व दिए गए बहादुरी पूर्ण भाषणों की पृष्ठभूमि में हो रही तौबा-तौबा को शांत करने की बाध्यता के कारण हुआ है। अपनी और भाजपा की डूबती छवि को बचाने का उपक्रम है यह, पराक्रम नहीं! इतने दिनों से मोदीजी क्यों कुछ नहीं कर रहे थे यह अस्पष्ठ है। उनके द्वारा किसी फ्रंट पर कोई निर्णायक कड़े कदम नहीं उठा सकने पर टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक टिप्पणीकार ने लिखा था कि शेर के चेहरे के पीछे मोदी जी एक खरहे का दिल रखते हैं। उनके द्वारा पाकिस्तान के विरुद्ध लगातार बार-बार शैतानी किये जाने के बावजूद पिछले ढाई तीन साल में कुछ नहीं किया जा सका, भाषण देने के अतिरिक्त। एक टीवी इंटरव्यू में प्रधान मंत्री बनने के पूर्व उन्होंने दाऊद का सफाया करने के स्पष्ट संकेत दिए थे, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। 'इण्डिया इस अ वेरी सॉफ्ट स्टेट' की धारणा ज्यों-की-त्यों बनी रही।

मैंने पाकिस्तान और हिंदुस्तान के राष्ट्रीय चरित्र या 'क्लास कैरेक्टरिस्टिक' का मुद्दा उठाया था। पाकिस्तान और हिंदुस्तान के चरित्र में बहुत फर्क है। यह फर्क बहुत दूर तक उनके  सांस्कृतिक फर्क से भी उत्पन्न होता है। वहां जानवर का गला रेत रेत कर धीरे धीरे जब काटते हैं तो यह दृश्य देख कर कई भरतीतयों को गश आ जाता है। इसे अंग्रेजी में बारबरिज़्म और हिंदी में बर्बरता कहते हैं। मगर पाकिस्तानी इसके आदी हैं। खून देख कर उन्हें गश नहीं आता। यहाँ खून देखते ही गश आने लगता है। इसलिए पाकिस्तानियों को युद्ध में मामले में हलके में नहीं लेना चाहिए। वे भारत का शांतिप्रिय और  भीरु चरित्र जानते हैं और इसका फायदा भी उठाते रहे हैं। आपने सर्जिकल स्ट्राइक किया है तो वे भी करेंगे। सेना के माध्यम से न करें तो आतंकवादियों के माध्यम से करेंगे। लेकिन इस घात-प्रतिघात के लिए देश को - सेना और पुलिस के अतिरिक्त इसकी जनता को भी और राजनेताओं को भी - मानसिक रूप से तैयार रहना पड़ेगा। आप पकिस्तान का चरित्र नहीं बदल सकते। उसे उसी भाषा में समझाना पड़ेगा जिस भाषा में वह समझे। ध्यान रहे की बर्बरता और बहादुरी में फर्क होता हैं। कभी-कभी बर्बर लोग कायर भी होते हैं और सभ्य और शांतिप्रिय लोग बहादुर और निर्भीक भी।  लेकिन भारतीय लोग आज शांतिप्रिय जरूर हैं, निर्भीक नहीं। सेना के बहादुर होने से नहीं होगा, जनता को भी सतर्क, बहादुर और निर्भीक होना होगा।

जैसे बीसवी सदी के पूर्वार्ध तक पश्चिम में कोई भी उच्च कोटि की बौद्धिक  चर्चा, समाज शास्त्र और अर्थशास्त्र से ले कर भौतिक शास्त्र और रसायन शास्त्र तक, बिना अरस्तू के पूरी नहीं होती थी, वैसे ही भारत में किसी भी विषय पर कोई उच्चस्तरीय चर्चा बिना गांधी के पूरी नहीं होती ।आपने एक मामूली-सा दो तीन किलोमीटर घुस कर सर्जिकल ऑपरेशन किया नहीं कि गांधी के शिष्य खड़े होने लगे कि शांति चाहिए, शांति चाहिए! शांति जरूर चाहिए, मगर कभी कभी शांति बनाये रखने के लिए अशांति मचानी जरूरी हो जाती है। कई गांधीवादियों को जरा-जरा सी बात पर हिरोशिमा और नागासाकी के दुःस्वप्न आने लगते हैं। गांधी को थोडा और जानने की जरुरत है उन्हें।

गांधी ने साउथ अफ्रीका में एक स्कूल खोला जिसमें कुछ प्रयोग किये। एक प्रयोग तो यह कि बच्चों को कोई शारीरिक दंड नहीं दिया जायेगा। दूसरा यह कि प्रिंसिपल से लेकर चपरासी-माली तक को समान तनख्वाह मिलेगी। एक ऐसा बच्चा उन्हें मिला जिसपर गांधी के किसी भी शांतिपूर्ण अनुशासनात्मक कदम का कोई असर नहीं हुआ, और अपनी शैतानियों पर वह कायम रहा। अंत में गांधी का धीरज खत्म हो गया, और उन्होंने बेंत उठाई और जी भर कर बेंत से  उस बच्चे को पीटा। कहाँ गयी तब गांधी की अहिंसा? गांधी ने अनशन के बारे में भी बाद में लिखा, 'ऐसे बर्बर व्यक्ति के आगे अनशन करने का कोई लाभ नहीं जिसकी आत्मा मर चुकी हो, और जिसे इसकी कोई फ़िक्र नहीं कि आपके मारने-जीने का क्या परिणाम होगा।'  प्रसंग शेष करते-करते यह बता दूँ कि गांधी का स्कूल फ्लॉप हो कर बंद भी हो गया।
यह भी बता दूँ कि जीवन में कोई भी जीवनमूल्य 'ऐब्सल्युट' या पूर्णतः स्थिति-निरपेक्ष नहीं होता, चाहे वह अहिंसा ही क्यों न हो। गांधी ने ही कहा था, 'हिंसा कायरता से बेहतर है।'

पाकिस्तान एक ऐसा ही शैतान बच्चा है जो बिना दण्डित किये नहीं मानेगा। पिछले 70 वर्षों ने इस चरित्र की पुष्टि की है।  इसका अर्थ युद्धवाद की शिफारिश करना नहीं है। उसकी जान नहीं लेनी है, मगर उसकी 'केनिंग' जरुरी है, अनुशासित करने के लिए। और इसके परिणामों का सामना करने के लिए भी हमें तैयार रहना पड़ेगा, और पुनः उनका उत्तर देने के लिए भी। यह कुछ दिन चलेगा, लेकिन वह ऐतिहासिक नियति की बाध्यता है। अमेरिका ने ओसामा का सफाया करने के लिए जो सर्जिकल ऑपरेशन किया वह वाजिब था, और वैसे सफल आपरेशनों के लिए भारत को पूरी तैयारी करनी चाहिए।

पी के सिद्धार्थ
30 सितम्बर, 2016

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