Sunday, 2 October 2016

गांधी से मेरी पहली मुलाकात!

गांधी से मेरी पहली मुलाकात :
मेरा अविस्मरणीय 13 वां जन्म दिन!

पी के सिद्धार्थ
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यह वह समय था जब बच्चों के जन्मदिन मनाने का रिवाज अभी शुरू ही हो रहा था। मेरे यहाँ भी यह रिवाज़ शुरू हो गया था। लेकिन इस अवसर के कार्यक्रम बड़े सरल थे। भगवान को फूल और प्रसाद चढ़ाना, जिसका जन्मदिन हो उसकी तिलक-आरती, और उसे एक छोटा-सा उपहार!

उस समय मेरे पिताजी बिहार के गया शहर में पदस्थापित थे, और मैं आठवीं कक्षा में गया जिला स्कूल का विद्यार्थी था। 1969 का साल, जब मेरा 13वां जन्मदिन आया! मैं अपने 13वें और 17वें जन्मदिन को बहुत विशेष मानता हूँ क्योंकि इन दो अवसरों पर मेरा दो विलक्षण लोगों से परिचय हुआ जिन्होंने मेरे जीवन को एक आकार देने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

13वें जन्मदिन पर मुझे मेरी माँ ने मुझे गिफ्ट-पैक करा कर एक छोटा-सा दिखने वाला उपहार दिया। उसे खोल कर जब मैंने देखा तो पाया कि यह एक पुस्तक थी, जिस पर लिखा था 'सत्य के प्रयोग'। लेखक का नाम था मोहनदास करमचंद गांघी। यह उपहार देख कर कोई हर्ष-विषाद हुआ हो ऐसा मुझे याद नहीं, क्योंकि मुझे न तो उस पुस्तक के बारे में कोई विशेष जानकारी थी न इसके लेखक के बारे में।

मैंने इस पुस्तक को रात में पढ़ना शुरू किया और अगले दो-चार दिनों में पढ़ कर खत्म कर दिया। मुझे मोहनदास की कहानी बहुत अच्छी लगी। इसी किताब से मैंने सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की भी कहानी जानी। मगर तब उतनी छोटी उम्र में गांधी के सत्य के प्रयोगों का निहितार्थ समझने की बौद्धिक क्षमता न थी। लेकिन उनके प्रयोगों और विचारों के अंकुर अंतर्मन में कहीं गहरे जा कर स्थापित जरूर हो गए। बाद में मेरी समझ में आया कि जिन तीन किताबों ने मेरे जीवन और विचारों को प्रभावित करने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उनमे एक यह किताब भी थी : सत्य के प्रयोग।

उसके बाद से गांधी द्वारा लिखी पुस्तकें और गांधी के जीवन और विचारों पर दूसरों द्वारा लिखी पुस्तकें मेरे बुक शेल्फ में अपना स्थान बढाती ही गयीं, जिसकी परिणति हुई भारत सरकार के पब्लिकेशन डिवीज़न द्वारा प्रकाशित गांधी साहित्य और गांधी के पत्राचार के 99 मोटे मोटे खण्डों को 1998 के आस-पास घर लाने में।

आज गांधीजी का जन्मदिन है। धरती के दोनों गोलार्द्धों तथा इतिहास और प्राक्-इतिहास के हजारों वर्षों के समय के विस्तार पर मैं स्थान और काल के इस कटाव-बिंदु पर खड़ा हो कर आज दृष्टिपात कर सकता हूँ, और अधिकारपूर्वक कह सकता हूँ कि कहीं भी किसी भी समय ऐसा इंसान नहीं पैदा हुआ जिसने सत्य और अहिंसा के ऐसे कठिन प्रयोग अपने जीवन में किये हों, और जिसने अपने जीवन का एक एक क्षण देश और जीवमात्र की भलाई के लिए दिया हो। इस मामले में गांधी के आस पास भी कोई नहीं दिखता!

कहाँ हो महात्मा तुम! लाओ अपने चरण लाओ कि उसकी रज का एक कण अपने मस्तक से लगा कर मैं भी धन्य हो जाऊँ!

पी के सिद्धार्थ
2 अक्टूबर, 2016

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