श्री गोविंदाचार्य से मेरी पहली मुलाकात के संस्मरण।
पी के सिद्धार्थ
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आज श्री गोविंदाचार्य से दिल्ली में मुलाकात हुई। बहुत ही सार्थक मुलाकात! मगर इसके पहले कि मैं आज की मुलाकात के विवरण लिखूं, मुझे इनसे 1974 में हुई पहली मुलाकात की स्मृतियाँ उकेरने की इच्छा होती है।
1974 में मैं पटना कॉलेज में बी ए का विद्यार्थी था। उस समय बिहार में हिंदी के प्रमुख अख़बार आर्यावर्त के संपादक श्री जयकांत मिश्र के पुत्र श्री पद्माकर मिश्र से मेरी मित्रता संगीत को लेकर हो गई थी, क्योंकि वे एक अच्छे सितारवादक थे, और मैं एक संगीत-पसंद व्यक्ति था। एक दिन पद्माकर जी ने मुझे बताया कि वे मुझे गोविंदाचार्य जी से मिलाना चाहते थे, जो बिहार विद्यार्थी परिषद् के प्रभारी थे। पद्माकर जी ने मुझे अपने घर डिनर पर आमंत्रित किया और साथ ही गोविंदाचार्य जी को भी। अतः श्री जयकांत मिश्र के घर पर हम तीनों की मुलाकात एक शाम हुई। मेरे एक अभिन्न मित्र चन्दन सिंह भी इस मौके पर आमंत्रित और उपस्थित थे। चन्दन जी एक बहुत ही प्रतिभावान कवि और संगीतविद थे।
यह उस समय के अख़बार के संपादक का घर था। कोई समृद्धि कहीं नजर नहीं आ रही थी। बैठक के नाम पर कोई 9 या दस फ़ीट लंबा और 8 फ़ीट चौड़ा एक कमरा था जिसमें एक चौकी बिछी थी और दो-तीन लकड़ी की बिना गद्दे वाली कुर्सियां लगी थीं।
गोविन्द जी की भाषाशैली और हाव-भाव, जिसे आजकल अंग्रेजी में बॉडी लैंग्वेज कहते हैं, ने यह तुरन्त बता दिया कि मैं जिस व्यक्ति से मुखातिब था वह एक अत्यंत पवित्र आत्मा था, जो स्वार्थ से ऊपर उठा हुआ था, और जो सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रभक्ति की भावना से प्रेरित था। यह भी साफ़ था कि वह न केवल भावनामय था, बल्कि सामान रूप से विचारशील भी था। वह जो पहला विचार मेरा इस व्यक्ति के सम्बन्ध में मिनटों में बना, आने वाले दशकों के एक लंबे समय ने उसे प्रमाणित भी किया।
गोविन्द जी ने मुझे यह प्रस्ताव दिया कि मैं विद्यार्थी परिषद में शरीक होने पर विचार करूँ। उस समय मुझे राजनीति में कोई रूचि नहीं थी। लेकिन मेरा दिमाग कभी भी किसी नई बात के लिए पूरी तरह बंद नहीं रहता था, और अगर उचित कारण मिलते तो किसी नए उद्यम के लिए मैं तत्पर हो सकता था।
डिनर शुरू होने के पहले गोविन्द जी ने मुझे एक लंबा भाषण दिया जिसका सारांश यह था कि देश की बहुतेरी समस्यायों की जड़ में लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा पद्धति थी। कांग्रेस की गलती गोविन्द जी के अनुसार यह थी कि उसने मैकॉले की शिक्षा-व्यवस्था को ही आगे बढ़ाया, उसे परिवर्तित नहीं किया।
मैंने गोविन्द जी की बातें ध्यान से सुनीं। उनकी बातों से मन में सहमति बन रही थी। उनकी बातें ख़त्म होने पर मैंने उनसे वही सवाल किये जो किसी भी व्यक्ति को करना चाहिए होता।
"गोविन्द जी, आपकी बातें तो ठीक लग रही हैं। मगर अब मूल सवाल यह है कि सत्ता में आने पर मैकॉले की शिक्षा व्यवस्था की जगह आपकी पार्टी किस वैकल्पिक व्यवस्था को लागू करेगी। उस वैकल्पिक शिक्षा- व्यवस्था का ब्लूप्रिंट कहाँ है?", मैंने पूछा।
गोविन्द जी मौन हो गए, और कुछ देर मौन रहे।
"मैं नहीं कहता कि आपकी पार्टी ने नयी शिक्षा-व्यवस्था का जो ब्लूप्रिंट तैयार किया है वह आप मुझे दिखा दें, क्योंकि वह पार्टी का एक ट्रेड सीक्रेट हो सकता है। मैं सिर्फ आपके मुख से सुनना चाहता हूँ कि आपकी पार्टी ने वैकल्पिक योजना तैयार कर ली है। मुझे स्पष्ट है कि आप एक सत्यनिष्ठ व्यक्ति हैं। आप सिर्फ हाँ कह देंगे तो मैं मान लूंगा, वैकल्पिक ब्लूप्रिंट देखने की मांग नहीं करूँगा।", मैंने आगे कहा।
गोविन्द जी ने मौन तोड़ते हुए कहा : "नहीं, मैं नहीं कहूँगा कि ऐसा कोई ब्लूप्रिंट तैयार है। समय आने पर वह तैयार कर लेंगे।"
"गोविन्द जी, देखिये, मैं कोई ज्योतिषी तो नहीं हूँ, मगर इतिहास की गति देख कर यह कह सकता हूँ कि आज से 20-25 वर्षों के बाद केंद्र में आपकी सरकार सत्ता में काबिज होगी, क्योंकि कांग्रेस के पतन की प्रक्रिया तब तक भ्रष्टाचार के कारण पूरी हो चुकी होगी, और चूँकि जिस निष्ठा के साथ आपलोग पूरे देश में काम कर रहे हैं, कांग्रेस के द्वारा रिक्त किये गए स्थान को भरने के लिए जनता के सामने आपकी पार्टी तब एकमात्र विकल्प होगी। उस समय अगर आपके पास पहले से सुविचारित एक वैकल्पिक शिक्षा-व्यवस्था की रूपरेखा नहीं तैयार रहेगी तो आपकी पार्टी कोई परिवर्तन नहीं ला पायेगी।", मैंने गोविन्द जी से अर्ज किया।
"प्रदीप जी, आपने एक कहावत सुनी है : 'शहर सिखावे कोतवाल"।
"गोविन्द जी, देश कोतवाली नहीं है, जो डंडे से चलता हो। यह तो दिमाग से चलता है। मुझे लगता है कि आपकी पार्टी को और गंभीर होने की जरुरत है, वरना सत्ता में आने पर वह विशेष कुछ कर नहीं पायेगी।", मैंने अर्ज किया।
"पद्माकर जी, इन्हें दीनदयाल जी की पुस्तक 'राष्ट्र जीवन की दिशा' दीजिये। उसमें उन्होंने सुन्दर शब्दों में देश में परिवर्तन की दिशा का चित्र खींचा है।", गोविन्द जी ने पद्माकर जी से कहा।
पद्माकर जी भीतर गए और यह पुस्तक ले कर आये और मुझे उपहार-स्वरुप दी। मैंने उलट-पलट कर देखा। उसमे शिक्षा-व्यवस्था पर कोई अध्याय नहीं मिला। मैंने गोविन्द जी को यह बात बताई। उन्होंने कुछ टिपण्णी नहीं की।
बातें और बढ़ें इससे पहले डिनर आ गया। हम लोगों ने भोजन किया और रात हो जाने के कारण अपने-अपने घरों को हो लिए। उसके बाद न तो गोविन्द जी से फिर 2015 तक मुलाकात हुई न उस समय मैं विद्यार्थी परिषद् में शामिल हुआ।
संयोग से जितने दिनों के बाद भाजपा (उस समय 'जनसंघ) की मिसाइल मैंने केंद्र में गिरने की बात कही थी, उतने ही दिनों के बाद भाजपा एन डी ए के मुख्य घटक के रूप में केंद्र में 1998 से 2004 तक सत्तासीन रही। इसी के पाले में शिक्षा-मंत्रालय रहा। भाजपा के एक अत्यंत वरीय नेता प्रोफ़ेसर मुरली मनोहर जोशी केंद्रीय शिक्षा मंत्री रहे, जो मैकॉले की शिक्षा- व्यवस्था को एक इंच भी खिसका नहीं सके। मैंने 2001 के आस-पास राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अपने कुछ मित्रों से गोविन्द जी से हुई अपनी चर्चा का हवाला देते हुए पूछा कि जोशी जी मैकॉले को हटाने की दिशा में कहाँ तक पहुंचे। उन्होंने बड़े आदरपूर्वक बताया कि जोशी जी बड़ी गंभीरता से वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था का अध्ययन कर रहे हैं। मैंने कहा कि जब तक वे अपना अध्ययन पूरा करेंगे तब तक अपना कार्यकाल भी पूरा कर चुके होंगे। वही हुआ। 5 वर्ष रह कर बिना कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये ही वे चले गए।
गोविन्द जी एक विचारशील व्यक्ति रहे और निश्चय ही उन्होंने पार्टी तक मेरा सन्देश पहुँचाया होगा, मगर यह स्पष्ट है कि पार्टी ने उस दिशा में कुछ नहीं किया।
गोविन्द जी से 1974 का यह वार्तालाप मेरे आने वाले जीवन को आकार देने वाले कारकों में से एक सिद्ध हुआ क्योंकि अब मेरे सामने यह स्पष्ट था कि अगर अगर अपने वायदे निभाने हैं तो सिर्फ अच्छी भावना से बात नहीं बनेगी, बल्कि मेहनत करके, शोध करके, चिंतन और संवाद करके हर महत्त्वपूर्ण क्षेत्र के लिए पहले ही वैकल्पिक कार्य योजना तैयार रखनी होगी, ताकि सत्ता में पहुंचते ही व्यवस्था-परिवर्तन का कार्य शुरू किया जा सके। अन्यथा जनता को झूठे सब्जबाग दिखा कर सिर्फ सत्ता परिवर्तन किया जा सकेगा, व्यवस्था परिवर्तन नहीं। इसी विचार को आकार देने के लिए मैंने 1998 में देश के कुछ सबसे चिन्तनशील लोगों को लेकर राष्ट्रीय मुद्दों का नागरिक आयोग या द सिटिजंस कमीशन फॉर नैशनल इश्यूज की स्थापना की जिसने 7 राष्ट्रीय मुद्दों पर अच्छा संवाद किया। इसमें तत्कालीन भारतीय प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी बी सावंत, न्यायविद पी एन लेखी, अर्थशास्त्री डॉ ए एम् खुसरो, अंतरिक्ष वैज्ञानिक यू आर राव, श्याम बेनेगल, मल्लिका साराभाई, असग़र अली इंजिनियर, मौलाना वहीदुद्दीन खान और दर्जनों विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान शरीक हुए। बाद में 2012 में मेरी पुस्तक 'सम्पूर्ण क्रांति की भूमिका' (अप्रकाशित) इसी विचार की परिणति थी, जिसमें गरीबी निवारण, शिक्षा, प्रशासनिक सुधार, राजनितिक और चुनावी सुधार आदि 11 विषयों पर व्यवस्था-परिवर्तन का मानचित्र सामने रखने की कोशिश की गयी। कई दशकों तक खींचे इस दशकों लंबे उद्यम में गोविन्द जी से हुई मुलाकात कहीं-न-कहीं पृष्ठभूमि में रह कर वह कार्य पूरा करने को कुरेदती रही जिसकी सलाह मैंने 1974 में गोविन्द जी के माध्यम से तत्कालीन जनसंघ (अब भारतीय जनता पार्टी) को दी थी।
पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल
11 अक्टूबर, 2016
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