Sunday, 2 October 2016

गांधी, गीता और कर्मयोग

गांधी जयंती पर विशेष :
गांधी, गीता और कर्मयोग

पी के सिद्धार्थ
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गांधी ने लिखा है कि वे गीता माता के दूध पर पले। उन्होंने 'गीता माता' नाम की एक पुस्तक भी लिखी है। उन्होंने यह भी लिखा कि उनके जीवन का एक एक क्षण भगवान कृष्ण को समर्पित था।

गीता की एक विशेषता है कि वह ईश्वर या मोक्ष तक पहुंचने के कई रास्ते साफ़-साफ़ बतलाती है। उनमें जो रास्ते बहुत जाने-माने हैं, वे हैं कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और (अष्टांग) ध्यानयोग। इनमें से किसी भी मार्ग का अनुसरण कर आप आध्यात्मिक मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि इन चार योगों के उदाहरण वास्तविक जीवन से दीजिये, तो मैं उन्हें चार  जाने-सुने हुए नाम बताता हूँ : ज्ञानयोग के लिए आद्य शंकराचार्य, भक्तियोग के लिए चैतन्य महाप्रभु, अष्टांगयोग या ध्यानयोग के लिए महावतार बाबा, जिनका जिक्र आपको योगानंद की जीवनी में मिलेगा, और कर्मयोग के लिए मोहन दास करमचंद गांधी। मैंने जो नाम लिए उनमें से कोई मिथकीय चरित्र नहीं, बल्कि सभी  ऐतिहासिक चरित्र हैं।

इन चारों मार्गों के बीच आत्यंतिक भेद नहीं, और सभी में थोड़े-बहुत दूसरे मार्गों के भी तत्व मिल जाते हैं, मगर गौण रूप में।

गांधी के लिए राजनीति, समाज सेवा आदि उनकी आध्यामिक साधना के ही अंग थे। कर्ममार्ग के प्रधान लक्षणों में है जागतिक विषयों और वस्तुओं में आसक्ति या 'अटैचमेंट' का समाप्त हो जाना। गांधी ने क्रमशः सारी सांसारिक वस्तुओं से अपने लगाव को त्यागना शुरू कर दिया, और गीता के कर्मयोग के सिद्धांत को शतप्रतिशत जीवन में लागू करने की कोशिश लगातार जारी रखी। ध्यान रहे कि गीता कहती है कि  यों तो सात्विक विषयों से आसक्ति राजसी और तामसी विषयों और वस्तुओं की आसक्ति से अच्छी होती है, मगर यह सात्विक आसक्ति भी वैसे ही मुक्ति के पथ में बेड़ी बन जा सकती है, जैसे सोने की बेड़ी, भले ही वह लोहे की बेड़ी से अधिक भाये। अतः गीताकार के अनुसार सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण इन तीनों की बेड़ियाँ काट कर गुणातीत हो जाना चाहिए। अच्छी पुस्तकों और ज्ञान में 'आसक्ति' नहीं होनी चाहिए, भले ही 'लगाव' हो।

इन्हीं सिद्धांतों का अनुकरण करते हुए गांधी ने पहले अपनी व्यक्तिगत लाइब्रेरी से मुक्ति प्राप्त की, फिर व्यक्तिगत गृह से मुक्त हो कर किसी और के स्वामित्व वाले घर में रहने लगे (और गीता के 'अनिकेत' के आदर्श को शब्दशः उतारा), और सभी व्यक्तिगत भौतिक वस्तुओं के स्वामित्व का त्याग कर दिया। अंत में उन्होंने कहा कि मेरे पास जिस एकमात्र भौतिक वस्तु का स्वामित्व बच गया है, वह है मेरा शरीर, जो 'मैं' नहीं हूँ, लेकिन इससे जीते-जी मुक्त नहीं हो सकता। इसी जीवन-दर्शन के अनुसार उन्हें न सत्ता से मोह रहा न पदों से। कांग्रेस के अध्यक्ष वे सिर्फ एक बार एक साल के लिए रहे, 1924 या 1926 में। देश को स्वतंत्र करने में मुख्य भूमिका निभाई, मगर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति नहीं बनना चाहा।

जिस सांसारिक चीज़ से आसक्ति सबसे मुश्किल से जाती है वह है काम भावना। वे इससे भी मुक्त हो चुके थे, मगर इस मुक्ति के विषय में पूरी तरह आश्वस्त होने के लिए उन्होंने सार्वजनिक रूप से जो प्रयोग किये वे कई लोगों में आजकल चर्चा का विषय रहते हैं, जो उन प्रयोगों की पृष्ठभूमि नहीं समझते। लेकिन ऐसे लोगों को ध्यान रहे कि उन्होंने किसी लड़की से शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाया, सिर्फ अपनी परीक्षा ली कि उनके अपने अंदर कोई भाव तो उत्पन्न नहीं होता, और वे सफल रहे! (मैं यह नहीं कहता कि ऐसे प्रयोग अनिवार्य ही थे।)

लेकिन यह प्रश्न बच ही जाता है कि क्या कर्मयोग का प्रयोग उन्हें वाकई ईश्वर तक ले गया! क्या वाकई यह आधयात्मिक मुक्ति का एक सच्चा मार्ग हो सकता है? ध्यान रहे कि सैद्धांतिक रूप से यह संभव दीखता है कि एक अनीश्वरवादी भी सांसारिक विषयों और वस्तुओं में पूरी तरह आसक्ति-मुक्त हो जाये। मगर क्या यह मुक्ति उसे आध्यात्मिक मुक्ति और ईश्वर की ओर वास्तव में ले जा सकती है?

नहीं! क्योंकि कर्मयोग का दूसरा आवश्यक लक्षण है ईश्वर को समर्पित कर कर्म करना, या ईश्वर के लिए कर्म करना। इसीलिए गांधी कहते हैं कि उनका एक-एक कर्म और एक-एक क्षण श्री कृष्ण को समर्पित है! ईश्वर में यह समर्पण अनवरत बना रहे, इसके लिए वे लगातार राम राम जपते रहते थे।

तो चलिए गांधी के विषय में यह प्रश्न हम स्वामी योगानंद से पूछते हैं कि क्या गांधी वाकई 'आध्यात्मिक' व्यक्ति थे?

योगानंद जी आधुनिक युग के विश्वसनीय और मान्य आध्यात्मिक योगियों में एक हैं जिनकी पुस्तक 'ऐन ऑटोबायो ग्राफी ऑफ़ अ योगी' पूरी दुनिया में बड़े चाव से पढ़ी जाती है। आपको भी पढ़नी चाहिए। उनके मन में एक बार आया कि क्यों नहीं गांधी जी को क्रियायोग (अष्टांग योग का ही एक नाम) सिखाया जाय। सो उन्होंने गांधी जी को पत्र लिख कर समय माँगा। गांधी जी ने उन्हें दो दिनों के लिए अपने वर्धा आश्रम में आमंत्रित किया। स्वामी जी वर्धा आश्रम में दो दिन गांधी जी के पास रहे। मैं विस्तार में नहीं जाना चाहूँगा (जिन्हें विस्तार में जाने की उत्सुकता ही वे 'ऐन ऑटोबायोग्राफी' ऑफ़ अ योगी' पुस्तक के अध्याय 'वर्धा आश्रम में' पढ़ें), मगर दो दिनों के बाद आश्रम छोड़ते हुए इस गेरुआधारी सन्यासी योगी ने उस 'गृहस्थ' के झुक कर चरण छू लिए। उन्हें समझ में आ गया कि यह कर्मयोगी अपनी ईश्वरीय साधना से स्वामी योगानंद से भी ऊँचे आध्यात्मिक धरातल पर पहुँच चुका था।

योगानंद जी ने गांधी के उस प्रयोग का भी अचरज के साथ जिक्र किया है जिसमें गांधी ने अपना अपेंडिक्स का ऑपरेशन बिना बेहोशी की दवा लिए किया था, क्योंकि वे देखना चाहते थे कि अपने शरीर में उनकी आसक्ति शेष हुई थी या नहीं। ज्यादा दर्द तो शरीर में आसक्ति और भय के कारण ही होता है। बाकी दर्द राम नाम का जाप कर उन्होंने होने बर्दाश्त कर लिया या शायद राम नाम से उस दर्द का शमन कर दिया (वे ऐसा अक्सर किया करते थे।)

योगानंद के वर्णन सभी ऐसे व्यक्तियों के संदेह दूर करने ले लिए काफी होने चाहिए जो इसमें शक करते हैं कि कर्म मार्ग और राजनीति के माध्यम से क्या वास्तव में ईश्वर को और आध्यात्मिक मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है!

पी के सिद्धार्थ
2 अक्टूबर, 2016

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