Sunday, 30 October 2016

भारत की संप्रभुता की रक्षा में मिडिया की भूमिका भाग 2

भारतीय संप्रभुता की सुरक्षा में मीडिया की भूमिका : भाग -2
*पाकिस्तान की चुनौती*

पी के सिद्धार्थ
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पिछले भाग में मैंने प्रश्न उठाया था कि भारत की संप्रभुता पर कौन-सा खतरा आ गया है जिसका संकेत मीडिया-सम्मलेन के आयोजकों ने दिया है?

वास्तव में यह खतरा नहीं, खतरे हैं। जो सबसे पहला खतरा ध्यान में आता है वह पाकिस्तान और चीन की ओर से उपजने वाला खतरा। लेकिन 'खतरा' शब्द की थोड़ी व्याख्या यहाँ अपेक्षित है। अगर हम पर व्यक्तिगत रूप से कोई खतरा आ गया है, ऐसा हम कहते या मानते हैं, तो इसका अर्थ अनिवार्य रूप से यह नहीं होता कि हमारी जान या हमारे अस्तित्व पर ही खतरा है। यह खतरा हमारे यहाँ चोरी का, हमारे जमीन या मकान के हड़प लिए जाने का या हमारे घायल किये जाने का भी हो सकता है। इसी प्रकार, भारत की संप्रभुता पर खतरे का यह अर्थ अनिवार्यतः नहीं कि भारत फिर से परतंत्र हो जायेगा। लेकिन खतरे को कम कर के ही क्यों आँकें? हम क्यों नहीं इस पर भी विचार करें कि क्या यह भी संभव हो सकता है?

मैंने अपने एक पहले पोस्ट में जिक्र किया था कि जैसे व्यक्तियों का चरित्र होता है, वैसे देशों का भी एक चरित्र होता है। भारत, पाकिस्तान और चीन के अपने-अपने चरित्र हैं। इस चारित्रिक भेद से हम सभी कमोबेश वाकिफ हैं। लेकिन आवश्यक नहीं कि इस विषय में पूर्ण मानसिक स्पष्टता हममें से सभी को प्राप्त हो ही गयी हो। या इस विषय में हमें स्मारित किये जाने की जरुरत नहीं हो।

अभी तक पाकिस्तान को ऐसा नेतृत्व नहीं मिल पाया जो इसे समझदारी और सभ्य आचरण के रास्ते ले जा सके, जो इसकी जनता को विकास और अमन-चैन दे सके, और उसे एक सभ्य पड़ोसी बना सके। कल को पाकिस्तान का चरित्र बदल सकता है, अगर इसे समझ-बूझ वाला सैनिक और राजनितिक नेतृत्व मिलता है।  लेकिन आज की उसकी सचाई यही है की वह एक बर्बर चरित्र का राष्ट्र है, जो न केवल दुनिया भर में आतंकवाद के मुख्य पोषक के रूप में जाना जाता है, बल्कि उसी चरित्र के परिणाम स्वरूप स्वयं भी बर्बर आतंक का शिकार है। वहां के नागरिक रात-दिन खौफ में जीते हैं, और अमन-चैन की दुआ मांगते हैं। सर्व विदित है कि पाकिस्तान ने अपने एक मददगार देश अमरीका के खिलाफ आतंकवाद में संलिप्त दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को अपने यहाँ छुपा रखा था, जिसका सफाया सर्जिकल स्ट्राइक कर, और पाकिस्तान की संप्रभुता को भंग कर, अमेरिका को करना पड़ा।

पाकिस्तान की सेना न केवल बर्बर चरित्र की है बल्कि अपने-आप में एक सम्प्रभु सत्ता भी है, जो वहां के राजनीतिक नेतृत्व के अधीन नहीं रहती बल्कि राजनीतिक नेतृत्व को अप्रत्यक्ष रूप से अपने अधीन रखती है। राजनीतिक नेतृत्व जानता है कि सेना के विचारों की अनदेखी करने से सेना जियाउल हक़ या  जेनेरल मुशर्रफ की तरह फिर सत्ता पलट कर खुद शासन की बागडोर संभाल लेगी। अतः पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व युद्ध की स्थिति में, यहाँ तक कि बिना युद्ध के भी, सहसा भारत पर नाभिकीय प्रहार कर उसे अभिभूत या ओवरपावर कर सकती है। अगर दिल्ली पर संसदीय सत्र के दौरान नाभिकीय प्रहार हो गया तो एक साथ सारे मंत्री और सांसद शेष हो जाएंगे और देश की संप्रभुता को अंजाम देने वाला पूरा तंत्र, जिसमे सेना के प्रमुख और उच्चतम न्यायलय भी शामिल हैं, निरस्त हो जायेगा।

हम नागरिक के तौर पर यह जानते हैं कि भारत और भारतीय लोग प्रकृति से राम-भरोसे, या जिसे अंग्रेजी में  कॉम्प्लेसेंट कहते हैं, उस प्रकार के होते हैं। आपदा-प्रबंधन के अधिकांश प्रसंगों ने बार-बार इस चरित्र का खुलासा किया है। जिस प्रकार की परम आपदा का जिक्र हमने किया, उस प्रकार की आपदा से निबटने के लिए हमारी सरकार ने क्या प्रबंध किये होंगे, यह हम समझ सकते हैं। कई पाठक निश्चित रूप से मेरे द्वारा प्रस्तुत संभावना-चित्र को तत्काल अनावश्यक भय-विपणन या दुःस्वप्न बता कर दिलो-दिमाग को अमन-चैन की गोली खिला कर नींद से सो जाने का इंतजाम कर लेंगे क्योंकि वे किसी भी कीमत पर 'मेन्टल पीस' चाहते हैं। वे यह भूल जाएंगे कि आतंकवाद के जरिये जो प्रॉक्सी वॉर या छद्म युद्ध पाकिस्तान लगातार लड़ता रहा है, उसके अंतर्गत एक बार वह वही कोशिश कर चुका है, जिसकी परिवर्धित संभावना का चित्रण मैंने ऊपर किया। यानी हमारी संदद पर संसद- सत्र के दौरान ही सशस्त्र अनाभिकीय आक्रमण हो चुका है। अगर वह आक्रमण हमारे सुरक्षा बलों के जवानों ने जान देकर असफल नहीं कर दिया होता तो क्या हश्र हुआ होता? और हमें यह भी जानना चाहिए की नाभिकीय आक्रमण के लिए पाकिस्तानी सीमा पार से मिसाइल दागा जाना अनिवार्य नहीं है (हालाँ कि वह भी संभव है)। यह भी आतंकवादियों के माध्यम से कार-बम या मानव-बम के माध्यम से कराया जा सकता है। ध्यान रहे कि नाभिकीय तकनीक, और वेपन्स ऑफ़ मास डिस्ट्रक्शन की प्रकृति, बर्ट्रेंड रसेल ने  'कॉमन सेन्स ऐंड न्यूक्लियर वॉर फेयर' नामक पुस्तक जब लिखी थी, तब से काफी आगे बढ़ चुकी है, मगर कॉमन सेन्स अभी भी इस मामले में उतना ही प्रासंगिक है।

अर्थात अगर दिल्ली पर अप्रत्याशित नाभिकीय प्रहार के साथ-साथ चीन के साथ मिल कर कुछ और बैक-अप फॉलो-अप  तैयारी पाकिस्तान ने कर ली तो भारत की संप्रभुता के सम्पूर्ण अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न हो सकता है। इसलिए इस खतरे पर सोचने और इस खतरे के प्रति देश और राजनितिक सत्ता-केंद्रों, सेना, अन्य सुरक्षा बलों, और रक्षा-वैज्ञानिकों को जागरूक करने में मीडिया की क्या भूमिका बनती है, यह चिंतन का एक विषय होना चाहिए। (क्रमशः)

पी के सिद्धार्थ
30 अक्टूबर, 2016

Saturday, 29 October 2016

भारत की संप्रभुता की सुरक्षा में मीडिया की भूमिका

'राष्ट्रीय संप्रभुता की सुरक्षा में मीडिया की भूमिका'

पी के सिद्धार्थ
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पिछले हफ्ते निकट भविष्य में होने वाले दो अलग-अलग सम्मेलनों में भाग लेने का आमंत्रण मिला - एक, वर्ल्ड गवर्नमेंट के लिए बनाये गए विश्व संघ के संविधान के अंतिम ड्राफ्ट पर चर्चा के लिए होने वाले अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन के लिए, और, दूसरा, मीडियाकर्मियों के एक सम्मलेन के लिए जो 'राष्ट्रीय संप्रभुता की सुरक्षा में मिडिया की भूमिका' पर होने जा रहा है।

पहला कॉन्फरेंस इस पर विचार करेगा की वर्तमान राष्ट्रों की 'संप्रभुता' को कैसे एक वैश्विक संसद, वैश्विक न्यायपालिका, वैश्विक प्रशासकीय तंत्र, वैश्विक पुलिस आदि के माध्यम से सीमित किया जाय, और दूसरा सम्मलेन प्रथमदृष्ट्वा इस मुद्दे पर है कि राष्ट्रीय संप्रभुता को कैसे सुरक्षित रखा जाय, और इस सुरक्षा में मीडिया की क्या भूमिका हो। यहाँ मैं दूसरे सम्मेलन  के सन्दर्भ में कुछ बातें करना चाहूँगा।

पहले हम यह समझ लें कि कोई भी संघीय राज्य, जैसे भारत या अमेरिका, न तो वैधिक रूप से, न राजनीतिक रूप से पूरी तरह सम्प्रभु हुआ करता है। भारत का उदाहरण लें : कुछ ऐसे विषय हैं जिनपर सिर्फ राज्य ही कानून बना सकते है, केंद्र नहीं। राजनीतिक रूप से भी सत्ता और संप्रभुता राज्यों और केंद्र के बीच विभाजित है। लेकिन यह सही है कि यह संप्रभुता-विभाजन आतंरिक है, और बाहरी नियंत्रण से, औपचारिक तौर पर, भारत मुक्त हो कर एक सम्प्रभु राष्ट्र है। लेकिन यह विचार अब व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के नियंत्रण के लिए, पर्यावरण को विनाश से बचाने के लिए, देशों के बीच नाभिकीय और अन्य युद्ध रोकने के लिए, और पूर्ण सामरिक निःशस्त्रीकरण आदि द्वारा विश्व शांति लाने के लिए वैश्विक संघीय सरकार बनाकर विभिन्न राष्ट्रों की संप्रभुता को सीमित करने की जरूरत है, न कि वर्तमान संप्रभुता की पूर्ण सुरक्षा करने की।

जाहिर है कि उपर्युक्त विचार से मिडिया कॉन्फरेंस के विद्वान आयोजक भी अवगत और सहमत होंगे। लेकिन शायद वे यह महसूस कर रहे होंगे कि आज भारत की संप्रभुता को कहीं-न-कहीं ऐसा खतरा उत्पन्न हो गया है, जो उस वांछनीय  खतरे से भिन्न है जो एक वैश्विक संघ या वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ नेशंस के बनने से उत्पन्न होगा। और इस अवांछनीय और भिन्न खतरे से देश को बचाने में मीडिया की क्या भूमिका हो सकती है, यह पत्रकारों द्वारा मिल-जुल कर सोचने का विषय है। शायद इसीलिए यह सम्मलेन बुलाया गया है। अगर ऐसा है तो यह एक अत्यंत स्वागत-योग्य कदम है, और आयोजक इसके लिए बधाई के पात्र हैं।

मगर भारत की संप्रभुता पर यह अवांछनीय खतरा कौन-सा है? (क्रमशः)

पी के सिद्धार्थ
29 अक्टूबर, 2016

Friday, 28 October 2016

Call for formation for alternative political front

गत 14 अक्टूबर 2016 भविष्य के लिए एक ऐतिहासिक दिन सिद्ध हो सकता है। इसी दिन को दिल्ली में लिया गया यह चित्र है जिसमें स्वामी अग्निवेश, सुराज दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री पी के सिद्धार्थ, सामाजिक क्रियावादी श्री पी वी राजगोपाल आदि दृश्यमान हैं।

आप अवगत हैं कि सुराज दल की और से यह लगातार आग्रह किया जाता रहा है कि ऐसे सभी सामाजिक नेता और क्रियावादी,  जिन्होंने अपनी ईमानदार सकारात्मक क्रियाशीलता के लिए देश का विश्वास जीता है, एक मंच पर इकठ्ठे हो कर देश को मिल कर एक स्वस्थ राजनीतिक विकल्प देने पर विचार करें।
गत 14 अक्टूबर को जब जंतर मंतर के करीब बंधुआ मुक्ति मोर्चा की बैठक चल रही थी, यह प्रस्ताव दिया गया कि चंपारण सत्याग्रह के सौवें वर्ष में देश के 200 ऐसे लोग एक कन्वेंशन में एकत्र हों और एक राजनितिक विकल्प के स्वरुप पर चर्चा करें। वेन्यू चंपारण हो या बिहार का ही कोई  अन्य स्थल, जैसे पटना, जहाँ 200 लोगों के ठहरने की व्यवस्था हो। कन्वेंशन की टेन्टेटिव तिथियाँ हैं 13 से 15 दिसंबर, 2016।

इंसान और पशु पक्षी भाग 9

इंसान और पशु-पक्षी : भाग 9

पी के सिद्धार्थ
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(शेरों से जोई की मीटिंग के बाद)

अभी खूंखार जंगली शेरों से अपनी मुलाकात के सदमे से पूरा उबर नहीं पाया हूँ। अगली मीटिंग कहीं मगरमच्छों से न करा दे यह सनकी मैनिमल, यह डर बना हुआ है। जानवरों का क्या ठिकाना! कब उनका जानवरपना जग जाये!

जोई धीरे-धीरे धरती पर उतरने लगता है।

मैं नीचे देखता हूँ। यह तो एक शहर लग रहा है! दिन का समय है, लोग उड़ते हुए कुत्ते को देख लेंगे तो हंगामा मच जायेगा। किसी ने फ़ोटो खींच ली और मनेका गांधी को भेज दी तो एक जानवर की पूंछ के साथ ज्यादती करने के लिए वे मेरे ऊपर मुकदमा भी कर सकती हैं।

मैं : जोई, ये तुम क्या कर रहे हो, दिन का समय है, शहर में न उतरो।", मैं जोई से कहता हूँ।

जोई : समझ रहा हूँ। मैं शहर से हट कर एक बड़े राजनीतिक नेता के फार्म हाउस में उतारूँगा। शहर के लोग नहीं देख पाएंगे। उस फार्म हाउस में पेड़ों का अच्छा झुरमुट है। वहां पिंजरों में चिड़ियों का एक बहुत अच्छा कलेक्शन है। वहां मैं चिड़ियों से बातें करने कभी-कभी आता हूँ। एक साथ इतने तरह के पक्षियों का संग्रह कहीं और देखा नहीं। जरा चिड़ियों को हेलो कर के निकलते हैं।

मैं : संभल कर, शहर के ऊपर से न निकलो।

जोई शहर से किनारे हो कर निकलता हुआ फार्म हाउस में उतरता है। यहाँ जंगल-जैसा पेड़ों का एक झुरमुट है। लेकिन लगता है फार्म हाउस के मैदान में कोई बड़ी मीटिंग चल रही है, क्योंकि लाउडस्पीकर की आवाज़ें आ रही हैं।

"दोस्तो, मजदूरों का शोषण दुनिया भर में इसलिए होता रहा क्योंकि वे कमजोर हैं, संगठित नहीं। उन्हें इज्जत नहीं मिलती क्योंकि वे शारीरिक श्रम करते हैं, और शारीरिक श्रम करने वालों की इज्जत नहीं की जाती है। न केवल मजदूर, बल्कि जो भी वर्ग कमजोर है उसका शोषण होता है। औरतों का भी बहुत शोषण हुआ है। वह भी इसीलिए क्योंकि औरतें मर्दों से कमजोर होती हैं।

इसलिए, अगर शोषण से मुक्त होना है तो देश के मजदूरों एक हो, दुनिया के मजदूरों एक हो!"

मैं : जोई, ये कौन भाषण दे रहा है?

जोई : ये कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (टी) के राष्ट्रीय महासचिव हैं, कामरेड नायर। चलो मैं तुम्हें उनके दर्शन कराता हूँ।

जोई मुझे झुरमुट के किनारे ले जाता है। वहां डाइनिंग हॉल है जिसकी खिड़की झुरमुट की और खुलती है। लगता है कार्यक्रम ख़त्म हो चुका है, क्योंकि कामरेड नायर और कुछ दूसरे कामरेड डाइनिंग टेबुल पर आकर बैठ जाते हैं।

कामरेड नायर का वार्तालाप झुरमुट में सुना जा सकता है। हम पेड़ों की आड़ ले कर उनकी बातें सुनते हैं।

कामरेड नायर : लाओ भाई, बटर चिकेन, मटन, बेकन सब लगाओ, नान, पुलाव -  सब जल्दी लगाओ।

मैं जोई को, और जोई मुझे देखता है।

जोई : ये कामरेड अभी-अभी सही ही कह रहे थे कि जो वर्ग कमजोर होता है, असंगठित होता है, उसका शोषण करना मनुष्य की प्रकृति होती है। इनकी प्रकृति भी तो यही लग रही है।

मैं : कैसे?

जोई : जानवर इंसान से कमजोर होता है, और संगठित नहीं होता इसीलिए तो ये कामरेड उनका शोषण कर रहे हैं। अगर चिकेन, बकरे और सूवर संगठित हो कर नारे लगाते हुए जुलुस निकाल सकते और पुरजोर विरोध करते तो क्या इंसान उन्हें इतनी आसानी से मार कर उनका मांस खा पाते?

"बात तो सही है!", इतनी दूर तक तो अबतक मैंने सोचा ही नहीं। शायद कामरेड नायर ने भी नहीं सोचा हो। लेकिन सोचने लायक बात है।" मैं चिंतनशील हो जाता हूँ।

मैं : मैं कामरेड नायर के पास तुम्हारा सवाल जरूर रखूँगा।

जोई : विल्फ्रेड इसीलिए मैनिमल तैयार करने में लगे हैं कि कल को ये भी जुलुस निकाल कर इंसानों के जुल्म का विरोध कर सकें। अन्याय का विरोध नहीं कर चुप रहना मौत को निमंत्रण देने के बराबर होता है।

मगर अभी यहाँ हमारा रुकना सुरक्षित नहीं है। आज यहाँ काफी चहल-पहल है। ये लोग झुरमुट की ओर चिड़ियों की प्रदर्शनी देखने अगर आ गए तो बंटाधार हो जायेगा। चलो, निकल चलते हैं। मगर कामरेड नायर से आज मुझे एक अच्छा नारा मिल गया है - 'दुनिया के जानवरो, एक हो!' थैंक यू, कामरेड! और कामरेड, अगर आप श्रम की गरिमा की बात करते हो तो बैलों द्वारा खेतों में हज़ारों वर्षों से किये गए श्रम को याद करना, आपके धोबी के गधों द्वारा हज़ारों वर्षों से आपके कपड़े ढोने में की गयी मशक्कत का स्मरण करना, ऊंटों द्वारा रेगिस्तानों आदमियों और सामानों को ढोने में की जा रही मेहनत को भी न भूलना, और फिर सोचना कि क्या इन जानवरों को उनके श्रम के लिए तुमने उचित आदर दिया?

"कितना चिंतनशील और पर्सेप्टिव है यह जानवर", मैं सोचता हूँ। "और कितनी सही बातें कर रहा है!"

जोई और मैं फिर किनारे से हो कर अपनी आकाश यात्रा पर निकल पड़ते हैं।

पी के सिद्धार्थ
28 अक्टूबर, 2016

Wednesday, 26 October 2016

इंसान और पशु पक्षी - भाग 8

इंसान और पशु-पक्षी (भाग 8)

पी के सिद्धार्थ
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(जंगल में शेरखान के साथ मीटिंग)

जोई : शेरखान, आप अपनी लंच खा लें तो हम मीटिंग शुरू करें?

शेरखान : जरूर! खत्म ही है, चलो शुरू करते हैं...(शेरखान अपने शिकार का बच खुचा अंश गटक कर डकार लेता है, फिर थोड़ी गंभीर मुद्रा में बैठ जाता है।)

शेर खान : मुद्दा यह था कि हम दुनिया के ज्यादातर लोगों की यह धारणा कैसे दूर करें कि जानवरों में आत्मा नहीं होती, इसलिए उनकी क़ुरबानी देने या उन्हें खाने-पकाने में कोई हर्ज़ नहीं।

मैं : क्या मतलब? कौन कहता है कि जानवरों में आत्मा नहीं होती?

शेरखान : सारे सेमेटिक धर्म और उनपर आँख मूंद कर विश्वास करने वाले यही मानते हैं - यानि यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इसलाम धर्म। यह बड़ा अजीब विचार है! उनके अनुसार जानवर स्वर्ग या नर्क नहीं जाते, क्योंकि उनमें आत्मा ही नहीं होती। इनमें से कुछ तो पहले  यह भी मानते थे कि औरतों में भी आत्मा नहीं होती! हम जानवरों में इंटेलिजेंस, भावनाएं सभी कुछ तो है, भले ही इंसानों से कम हो! हमारे शरीर में भी दिल, जिगर, किडनी, स्नायुतंत्र, फेफड़े, मस्तिष्क की संरचना आदि सभी कुछ तो मनुष्यों जैसी ही है, कम-से-कम हममें से कुछ स्पीसीज में। हम भी इंसानों की तरह ही लालची होते हैं। फिर क्यों यह मान्यता है कि मनुष्यों में आत्मा होती है, मगर जानवरों में नहीं होती? हमें भी ख़ुशी होती है, और हमें भी पीड़ा होती है!

"उस इंसान को भी तो पीड़ा हुई होगी जिसे तुम अभी खा रहे थे! मगर तुम भी तो उसकी पीड़ा नहीं समझ रहे! बिलकुल इंसानों की तरह!", मैं मन ही मन सोचता हूँ मगर यह बात शेरखान को कहना इस वक्त खतरे से खाली नहीं।

जोई : बर्ट्रेंड रसेल ने इसीलिए, इन्हीं बेतुकी और अस्वीकार्य बातों के चलते, उस धर्म को त्याग दिया जिसमें वे पैदा हुए थे। उन्होंने अपनी किताब 'व्हाई आई एम नॉट अ क्रिस्चन' में लिखा कि यह निहायत बेतुकी बात है कि कुत्ते में आत्मा नहीं और आदमी में है। अगर है तो दोनों में है, नहीं है तो दोनों में किसी में भी नहीं।

मैं : धर्मो, ईश्वरदूतों और पैगम्बरों की कई बेतुकी बातों से लोगों को बचाने के लिए वैज्ञानिक चेतना और क्रिटिकल थिंकिंग को पाठ्यक्रम के माध्यम से स्कूलों-कॉलेजों में प्रसारित करने से ही इस तरह के अंधविश्वासों से लोगों को मुक्ति मिल पायेगी। लेकिन कुछ बेतुकी और गलत बातों के कारण समूचे धर्म का त्याग भी मुझे उचित नहीं लगता। कुछ कंकड़ों के चलते पूरे चावल को ही फेंक देना भी शायद उचित नहीं। कंकड़ों को चुन कर निकाल देना, और फिर चावल का उपयोग करना एक बेहतर विकल्प लगता है, अगर वह चावल खाने योग्य है।

जोई : विल्फ्रेड का मकसद यह था कि जब हर मुख्य स्पीसीज में कुछ आदमी की तरह सोचने वाले जीव के जोड़े तैयार हो जाएंगे, और उनके संयोग से सोचने वाले जींस के साथ नए बच्चे पैदा होंगे, तो बड़ी संख्या में इंसानों की पशु-विरोधी गतिविधियों का विरोध करने वाले समर्थ और इंटेलिजेंट पशु-समूह  खड़े हो कर मनुष्यों से अपनी रक्षा करने के तरीके निकाल पाएंगे। आज विल्फ्रेड के प्रयासों से काफी मैनिमल्स उन जीवों में तैयार हो गए हैं जिन्हें मनुष्य क़ुरबानी या भोजन के लिए प्रयोग में लाता है।

शेरखान : सिर्फ अपनी रक्षा? हुंह! यह विल्फ्रेड की मंशा होगी!हमारी नहीं!  मैनिमल्स की उचित संख्या होते ही हम मनुष्यों पर आक्रमण कर उन्हें तहस-नहस कर देंगे, खत्म कर देंगे। उनकी संख्या ही कितनी है? सिर्फ 740 करोड़! और हमारी संख्या कितनी है, जोई, कोई अनुमान?

"यहाँ भी वही हाल!", मैं सोचता हूँ।  "जितना पावर, उतना ही कम ज्ञान और उतना ही कम दिमाग लगाने की प्रवृत्ति!"

जोई : एक शोध के अनुसार एक एकड़ में 12.4 करोड़ से भी ज्यादा कीड़े मकोड़े होते हैं, यह वैज्ञानिकों ने ही शोध कर निकाला है।  सिर्फ पालतू पशुओं या लाइवस्टॉक की अनुमानित संख्या चौबीस सौ करोड़ से भी ज्यादा है, यानि मनुष्यों का साढ़े तीन गुना। इसमें सिर्फ चिकेन या मुर्गियों की संख्या ही 1800 करोड़ है। लेकिन दुनिया में सबसे अधिक कीड़े-मकोड़े हैं - एक एकड़ में 12.4 करोड़!

मैं इस मैनिमल कुत्ते की स्मृति पर हैरान हूँ। "यह तो जाकिर नायर का शागिर्द लग रहा है! कहीं नायर की तरह आंकड़े फेंक तो नहीं रहा?", मैं सोचता हूँ।

मैं : तुम्हारे आंकड़ों का श्रोत जोई?

जोई : लाइवस्टॉक के बारे में फ़ूड ऐंड ऐग्रिकल्चर ओर्गेनाइज़ेशन।

मैं : और धरती पर जानवरों की कुल संख्या ?

जोई : गणितशास्त्री कंप्यूटर विशेषज्ञ पशु अधिकार क्रियावादी ब्रियान टोमासिक के अनुसार 20 क्विंटिलियन।

शेरखान : इसका मतलब?

जोई : 20 बिलियन बिलियन!

शेरखान कन्फ्यूज़्ड और अवसादग्रस्त दिखता है, वैसे ही जैसे भारत में कम पढ़े-लिखे मंत्री पढ़े-लिखे ब्यूरोक्रेट्स की कुछ बातों को नहीं समझ पाने पर अपनी प्रतिष्ठा की हिफाज़त करने के लिए पूछ भी नहीं पाते और बात समझ भी नहीं पाते और अंततः फ़ाइल में मजबूर हो कर प्रस्ताव पर दस्तखत कर देते हैं।

"वही हाल यहाँ भी!", मैं फिर सोचता हूँ, "जितना अधिक पावर, उतना ही कम दिमाग, उतना ही कम ज्ञान!"

शेरखान : अच्छी संख्या में मैनिमल्स तैयार हो कर अगर अन्य जानवरों को नेतृत्व प्रदान कर दें तो 740 करोड़ मनुष्यों का सफाया तो एक दिन में हम जानवर कर दें! गुर्रर्रर! कीड़े मकोड़े ही चाहें तो एक साथ आक्रमण कर इंसानों को ख़त्म कर दें।

"अल बगदादी शेर खान से मिल कर बहुत खुश होगा", मैं सोचता हूँ। "इसकी सोच बगदादी से काफी मिलती है!"

शेर खान : फिर हमें एक दिन तो दुनिया का सबसे स्वादिष्ट भोजन मिलेगा - मनुष्यों का मांस! अहा, क्या सुन्दर दिन होगा वह!

शेर खान की बात सुन कर बाकी शेर मेरी ओर ललक भरी दृष्टि से देखते हैं। मैं हनुमानचालीसा का पाठ मन ही मन करना शुरू कर देता हूँ और चर्चा को गलत दिशा में जाता देख हस्तक्षेप करता हूँ।

मैं : शेर खान, फिर तो वही गलती हो गयी जो इंसान कर रहे हैं। दुनिया सभी की हैं, सभी को यहाँ रहना चाहिए। बायो-डाइवर्सिटी जरूरी है न!

जोई : शेर खान, हम कुछ मैनिमल्स की एक मीटिंग रखें जिसमें पशुओं से जुड़े और मुद्दों पर भी गंभीर चर्चा हो। तब विस्तार में बातें करेंगे। अभी हमें इजाज़त दो!

जोई मुझे लेकर ऊपर उठता है और कोई 20 फीट ऊपर पेड़ पर बैठ जाता है।

जोई : शेर खान, तुम तो मैनिमल हो, यानि आधे आदमी हो गए हो। इंसानों में आज कल जेंडर जस्टिस की बात बहुत चल रही है। थोडा तुम भी समझो। मैंने सुना है की नर शेर बड़े आलसी होते हैं, सिर्फ बैठे ही रहते हैं, और सारा काम मादा शेरनी से ही कराते हैं। यहां तक कि उसके लिए शिकार कर के पशु लाना और बच्चों का पालन पोषण और रक्षा भी शेरनी ही करती है। यह अच्छी बात नहीं है। मनुष्यों में आज बिहार के अलावा दुनिया में कहीं भी नर मानव इस तरह के आलसी नहीं होते कि खुद पड़े रहें और स्त्री बहार-भीतर के सारा काम दिन-रात करती रहे।

शेरखान उठ कर जोई की शरारत समझ कर मुस्कुराता हुआ गुर्राता है, और उसपर लपकने की मुद्रा बनाता है, मगर दो शेरनियां उसे ढेर कर देती हैं। इधर जोई मुझे ले कर फिर आकाश में हो लेता है। मैं समझ गया हूँ कि आज जोई ने चतुराई के साथ एक तीर से दो गंभीर शिकार किये हैं। मगर मैं असहाय हूँ। अगर उसका गला दबाने की कोशिश करता हूँ तो छूट का नीचे गिर जाऊंगा!

पी के सिद्धार्थ
26 अक्टूबर, 2016