द मैन ईटर ऑफ़ मनातू : भाग 2
पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल
मनातू मउआर के घर की कुर्की-जब्ती की कोई प्रतिक्रिया मउआर की ओर से नज़र नहीं आई। इससे जिले की कलक्टर का मनोबल काफी बढ़ा, और जब मैं दो-तीन दिनों की छुट्टी गया तो इस बीच उन्होंने खुद भी उनके घर में छापामारी कर डाली। इस बार प्रतिक्रिया हुई, और मउआर ने कलक्टर पर मुकदमा ठोक दिया, जिससे वे वर्षों तक, पलामू से रुखसत होने के बाद भी, जूझती रहीं। इस घटना ने मेरे मन में उस वक्त कई सवाल खड़े किये। मुख्य सवाल यह था कि इस सामंत ने मेरे ऊपर मुकदमा नहीं डाल कर कलक्टर पर ही क्यों मुकदमा किया? मैंने इस विषय पर कुछ सुधी लोगों और अधिकारियों से चर्चा की। उनका यह मानना था कि मउआर मेरी गतिविधियों और न्याय से प्रेरित अन्य कार्रवाइयों पर निगाह रखे हुए थे, अख़बारों के माध्यम से और जनता के माध्यम से। उन्हें यह स्पष्ट हो गया था कि मैं व्यक्तिगत राग-द्वेष से प्रेरित हो कर, या व्यक्तिगत लाभ के लिए, कोई काम नहीं करता। उनके विरुद्ध मैंने जो कार्यवाई की उसके न्यायोचित कारण स्पष्ट थे। उनके बेटे के खिलाफ वारंट था। उसने गंभीर अपराध किया था। वह फरार चल रहा था। इसलिए कुर्की-जब्ती वैधानिक और उचित कार्रवाई थी। दूसरी और कलक्टर ने जो कार्रवाई की उसके पीछे ऐसा कोई औचित्य नहीं था। उस कार्रवाई को प्रशासन और कलक्टर महोदया के व्यक्तिगत बल-प्रदर्शन के रूप में देखा गया। इसलिए मउआर के मन में अन्याय-पीड़ित होने की भावना बनी।
कलक्टर पर मुकदमा ठोकने के उपरांत मउआर ने मेरे द्वारा अपने विरुद्ध की गयी करवाई का भी एक जबरदस्त प्रत्युत्तर मुझे दिया, जो नितांत अप्रत्याशित था और नितांत असंभावित भी!
शायद यह एक रविवार था, और मैं थोड़े इतमिनान के भाव से अपने आवासीय कार्यालय में बैठा हुआ था। एक अत्यंत वरीय पत्रकार देवव्रत जी भी मेरे कार्यालय कक्ष में बैठे हुए थे। वे पत्रकार कम और मेरे मित्र अधिक थे। गाँधीवादी थे, खादी की फुलपैंट-शर्ट पहनते थे और जब मर्जी मेरे घर-परिवार के सदस्य की तरह पहुंच कर कभी-कभी गप-शप करते थे। चूँकि मैं भी अहिंसा और सत्य व न्याय की बात करता था इसलिए मुझसे अच्छी पटती थी। आज इतवार था, इसलिए हाज़िर थे।
किसी भी वक्त किसी को भी मेरे निवास में आने से नहीं रोकने का मेरा लिखित निर्देश था हाउस गार्ड को। गार्ड सिर्फ व्यक्ति की तलाशी ले कर सुरक्षा के पहलू पर नज़र रखने का अपना वैधानिक दायित्व निभा सकते थे। 8-10 एकड़ में फैला हुआ आवासीय परिसर था। अतः मुख्य गेट पर तलाशी के बाद लंबी दूरी तय करके ही कोई आ सकता था। आने के बाद सिर्फ मेरे आवासीय कार्यालय-कक्ष के बहार खड़ा सिपाही ही उसे रोक सकता था। उस सिपाही ने आ कर कहा कि एक व्यक्ति मिलना चाहते हैं। मैंने कहा, आने दो। जल्द ही ऊपर की और उठी और मुड़ी हुई मूछ वाले एक उम्रदार सज्जन भीतर पधारे। मैंने उन्हें बैठने को कहा और पूछा कि मैं उनकी क्या सहायता कर सकता था। वे बैठ गए। उन्होंने अपना परिचय दिया कि वे मनातू के मउआर जगदीश्वर जीत सिंह हैं। मैंने तब इस ख्यात व्यक्ति को पहली बार देखा। मैंने पूछा, कैसे तशरीफ़ लाये? उन्होंने कहा कि उन्हें मुझसे शिकायत थी कि मैं उनको बहुत बुरा आदमी समझता था। मैं चुप रहा, और उनकी ओर जिज्ञासा भाव से देखता रहा। फिर मैंने देवव्रत जी की ओर देखते हुए कहा : "मैं भगवद्गीता का उपासक हूँ, और यह मानता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर वही परमात्मा स्वयं आत्मा के रूप में विराजमान है, इसलिए मूलतः हर व्यक्ति अच्छा ही नहीं, डिवाइन या दिव्य है - ममैवांशो जीव लोके जीव भूतः सनातनः। अतः मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि आप या अन्य कोई भी व्यक्ति बहुत बुरा है? क्यों देवव्रत जी, क्या मैं ऐसा नहीं सोचता और कहता हूँ?"
देवव्रत जी ने सर हिला कर मेरा समर्थन किया।
मउआर साहब के हाथों में एक लंबा कागज़ था, गोल लपेटा हुआ, जैसे दीवार में लटकाने वाले किसी देश का नक्शा हो। मउआर ने उस कागज को मेरे टेबुल पर फैला दिया। (क्रमशः)
पी के सिद्धार्थ
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