मदनकृष्ण वर्मा : सामजिक क्षेत्र के एक स्मरणीय व्यक्तित्व (भाग 1)
पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल
मैं भारतीय पुलिस सेवा के त्रिपुरा काडर का अधिकारी रहा। लेकिन 1989 में तीन वर्षों के लिए तत्कालीन अविभाजित बिहार में प्रतिनियुक्त हुआ। 1990 के अंत की ओर मेरी पदस्थापना बिहार के सबसे 'बुरे' जिले पलामू में हुई, जो गंभीर रूप से नक्सल-प्रभावित था। दुमका जिले के एस पी के रूप में सत्ताधारी दल के एक विधायक के 'पीछे पड़ने' और उन्हें जिला छोड़ देने को बाध्य करने के फलस्वरूप मुझे 'सबक सिखाने' के लिए मुझे पलामू का प्रभार दिया गया, ऐसा एक राजनेता ने मुझे बताया। लेकिन पलामू न केवल मेरे पुलिस करियर का सबसे चुनौतीपूर्ण प्रभार सिद्ध हुआ, बल्कि इस जिले ने जीवन के उस आयाम से मेरा परिचय कराया जिससे तब तक मेरा वास्तविक परिचय नहीं हुआ था। गरीबी, सामंतवाद, भ्रष्टाचार और अन्याय, तथा इन सबके मिश्रण से उत्पन्न नक्सलवाद - इन सबने मिल कर भारत की जमीनी सच्चाई के प्रति अभूतपूर्व रूप से मुझे सजग किया।
नक्सलवाद से मेरा सामना पहले कभी नहीं हुआ था। एक ओर पुलिस अधिकारी के रूप में मेरा कर्त्तव्य था कानून और व्यवस्था बनाये रखने के लिए नक्सलवादियों की गिरफ़्तारी और उनसे मुठभेड़, वहीँ दूसरी ओर यह समस्या थी कि उस वक्त सिवाय नक्सलवादियों के गरीब को किसी दूसरे से त्वरित न्याय की कोई आशा नहीं थी।
थाना और बीडीओ गरीब को घुसने नहीं देते थे, और न्यायलय की लंबी और खर्चीली न्याय-व्यवस्था उनके बूते के बाहर की चीज़ थी। यह जानने-योग्य बात है कि यहाँ गरीब की जमीन पर कोई भी थोडा समृद्ध या मजबूत व्यक्ति थोड़ी-सी रिश्वत रेवेन्यू कर्मचारियों को दे कर एक फर्जी कागज बनवा कर एक 'भू-विवाद' उत्पन्न कर देता था (और अभी भी करता है), और उसके बाद डेपुटी कलक्टर (लैंड रेवेन्यू) और ए डी एम (लैंड रेवेन्यू), और फिर सिविल कोर्ट में मुक़दमे की पैरवी के लिए दौड़ने की प्रक्रिया गरीब की कमर तोड़ देती है। इसलिए गरीब हार कर बैठ जाता था। सदियों तक अंग्रेजों से लेकर हिंदुस्तानी सरकारों तक यही चलता रहा है। अंत में नकसलाइट उठे और उन्होंने बंदूक के बल पर गरीब से कब्जे में ली गयी जमीन से सामंती तत्त्वों और दबंगों को भगाना शुरू किया। गोलियां चलने लगीं। सामंतों ने भी अपनी 'सनलाइट सेना' बना कर नक्सलियों का प्रतिकार करना शुरू किया। इसी संघर्ष के दौर में मैं पलामू में उतरा।
इस संघर्ष में तीन-तीन हज़ार लोग सैकड़ों बंदूकों के साथ रात में भूस्वामियों के यहाँ धावा बोल देते थे। मैं जल्द ही पूरी समस्या से अवगत हो गया। नक्सलवादियों के विरुद्ध धर-पकड़ का अभियान शुरू हो गया जिसे 'अभियान अग्निदूत' का नाम दिया गया। एक-के-बाद-एक शीर्ष नक्सली नेता पकड़े जाने लगे। टाइम्स ऑफ इण्डिया के एक स्थानीय पत्रकार लंबे समय से पलामू में रहते आ रहे थे, और पढ़े लिखे प्रोफ़ेसर भी थे। वे पलामू के ग़रीबों की हालत से परिचित थे और 'प्रो-पुअर' थे। वे भीतर-ही-भीतर इस धर-पकड़ से घबराये हुए थे। एक दिन उनसे नहीं रहा गया। उन्होंने मुझसे पूछा, "सिद्धार्थ साहब, आप यह क्या कर रहे हैं! सभी को पकड़ लेंगे तो गरीब को मदद कहाँ से मिलेगी?" यही चिंता मेरी भी थी, मगर मैं अपने क़ानूनी कर्त्तव्य से मजबूर था। फिर संविधान की शपथ ली थी। यों भी मैं लोकतन्त्र में हिंसा का रास्ता अपनाने के विरुद्ध रहा हूँ। तो क्या किया जाय, यह मेरी चिंता थी, जो हर नक्सल नेता की गिरफ़्तारी के साथ बढ़ती जा रही थी।
मैंने अपने मित्र श्रीकृष्ण से मानसिक संवाद शुरू किया, उनकी गीता उलटी-पलटी। फिर बेतला अभयारण्य गया, और वहां गेस्ट हाउस में बैठ कर अरण्य देखता हुआ उपाय सोचता रहा। नदी के किनारे बैठ कर लहरों से पूछता रहा। अपने दो मित्र हथिनियों जूही और अनारकली (अनारकली का पिछले महीने निधन हो गया - ईश्वर उन्हें सद्गति दे!) से मिल कर उनसे भी मूक संवाद किया। धीरे-धीरे एक विचार आकार लेने लगा। (क्रमशः)
पी के सिद्धार्थ
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