मेरे प्रिय आइ ए एस अधिकारी : एस आर शंकरन (भाग 2)
पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल
आजकल जब नए आई ए एस प्रोबेशनर ज्वाइन करते हैं तो यह बातचीत करते सुने जाते हैं कि फलां मुख्य सचिव ने कितने करोड़ कमाए, कितने फ़ार्म हाउस कहाँ-कहाँ खरीदे। जाहिर है कि जब वरीय पदो पर ये प्रशिक्षु जाएंगे तो उन्हें ऐसे ही मुख्य सचिवों के पदचिंहों पर चलने की प्रेरणा मिलेगी। यही आज सर्वत्र घटित भी हो रहा है। अपवादों की बात अलग है। यही सामान्य मनोविज्ञान है। सरकार में भ्रष्टाचार और जन-निष्ठा हमेशा पानी की तरह ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित होते हैं।
मगर त्रिपुरा में यदि मुख्य सचिव के बारे में कोई चर्चा होती थी तो बस इतनी-सी कि वे कैसे कभी-कभी दो केले खा कर पर अपना लंच खत्म कर लेते थे, और कितनी सादगी से रहते थे। उनकी देखा-देखी और उनकी प्रेरणा से जिले के कई कलेक्टर भी दूरस्थ गांवों तक पैदल यात्रा करते थे, और वहां के आदिवासियों की समस्या और विकास के कार्यक्रमों के कार्यान्वन का जायजा स्वयं लेते थे।
जैसे राज्य के विधायकों और मंत्रियों में मुख्यमंत्री नृपेन चक्रवर्ती का खौफ रहता था, वैसे ही राज्य की सभी सेवाओं के अधिकारियों में मुख्य सचिव का खौफ रहा करता था। ध्यान रहे कि एक राजनेता या एक वरीय सरकारी अधिकारी का खौफ अपने अधीनस्थों पर तभी अच्छा होता है जब उसके साथ आदर की भावना भी जुड़ी होती है।अगर यह खौफ सिर्फ दंडात्मक कार्यवाही के कारण उत्पन्न होता है, तब उस तरह की प्रशासन-शैली पर कई तरह के प्रश्नचिह्न लगते हैं।
शंकरन का आदेश था कि कोई अधिकारी लंच के लिए घर नहीं जाएगा, और कार्यालय में ही लंच करेगा। इस आदेश का सर्वत्र पालन होता था। शंकरन के बाद जो भी मुख्य सचिव आये, किसी के कर्यकाल में इसका पालन नहीं हुआ, हालाँकि सरकारी आदेश कागज पर वे ही थे, जबकि शंकरन के जाने के बाद भी कुछ दिनों तक नृपेन दा ही मुख्यमंत्री थे। अतः यह कार्यसंस्कृति सिर्फ नृपेन दा की नहीं बल्कि शंकरन की देन थी।
ऑफिस में खाने के आदेश के कारण मुझे भी घर से ही खाना लाना पड़ता था। मेरे खाने की डोलची कुछ विशेष होती थी, इसका मुझे कोई अहसास नहीं था। मगर कुछ ही दिनों में यह प्लास्टिक की जाली वाली बड़ी-सी नीली डोलची पुलिस मुख्यालय में, और सचिवालय में भी, प्रसिद्ध हो गयी, क्योंकि मेरी डोलची में थर्मस में सूप, जूस, और कई तरह के पकवान हुआ करते थे। मेरे कई वरीय साथी मेरे साथ लंच करने मेरे कमरे में आने लगे। उनकी छोटी-सी टिफिन बहुत सामान्य सी होती थी - दो-चार रोटियां और एक-आध सूखी भाजी। जल्द ही उन्होंने अपनी पत्नियों से शिकायत शुरू की, जिसके बाद पुलिस अधिकारियों की पत्नियों ने एक सभा बुला कर मेरी श्रीमती जी को बहुत नसीहतें दीं कि उनके द्वारा परंपराएं ख़राब की जा रही थीं। मगर मेरा लंच पूर्ववत 'संपचुअस' बना रहा। शंकरन के जाने से मुझे तात्कालिक फायदा यह हुआ कि मेरे मित्र अपने घर जा कर दिन का भोजन करने लगे (और थोडा दिन का आराम भी)। इससे मेरे 'टिफिन' पर उनका अतिक्रमण बंद हुआ, और मैंने फिर से अपने दिन के भोजन का निर्विघ्न आनंद उठाना शुरू किया। मगर मेरा फायदा भले हुआ हो, राज्य का नुकसान हुआ।
मुख्य सचिव का आदेश था कि कोई डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या एसपी अपना जिला बिना उनकी अनुमति के नहीं छोड़ेगा। इस आदेश का पालन भी होता रहा मगर पूरी तरह नहीं। मैंने पाया कि मेरे जिले के युवा कलेक्टर और युवा एसपी अपनी पत्नियों के साथ बीच-बीच में छुपकर अगरतला निकल जाते थे सिनेमा देखने के लिए। साउथ डिस्ट्रिक्ट मुख्यालय से अगरतला सिर्फ एक-डेढ़ घंटे की दूरी पर था, इसलिए सिनेमा देख कर तुरत वापस जिला-मुख्यालय लौट आना संभव था। मगर वे यह सुनिश्चित करते थे कि उनकी गाड़ियां छुपे हुए स्थान पर पार्क हों ताकि मुख्य सचिव के संज्ञान में यह बात न आए।
मुख्यमंत्री नृपेंद्र दा और मुख्य सचिव श्री शंकरन में से कोई भी दबंग नहीं था, और कड़ी भाषा का प्रयोग नहीं करता था। दोनों मितभाषी थे। दोनों का समान आदर राज्य में था, और दोनों के खौफ के पीछे उनकी नैतिकता और उनके स्वच्छ चरित्र का बल था। देश में कहीं भी एक साथ ऐसा मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव नहीं हुआ होगा।
मुख्य सचिव को यह स्वतंत्रता मुख्यमंत्री ने दे रखी थी कि वह कोई भी निर्णय आवश्यकता पड़ने पर ले लें, और बाद में उस का अनुमोदन मुख्यमंत्री से करा लें। लेकिन इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग कभी शंकरन साहब ने नहीं किया। सभी मंत्री मुख्य सचिव का बहुत लिहाज करते थे। सभी मंत्रियों को नृपेन दा का यह निर्देश था कि कभी मुख्य सचिव को अपने कमरे में न बुलाएं। कभी-कभी गोष्ठियों में जब मुख्यमंत्री एक हद पार कर जाते थे तो मुख्य सचिव उनको संभालकर रोक लेते थे और उनकी बात विनम्रता पूर्वक काट भी देते थे।
मैंने सुना कि आंध्र प्रदेश में एक बार शंकरन साहब ने सरकार के करोड़ों रुपए बिना सरकार की अनुमति के जल्दी-जल्दी में शायद अकाल जैसी स्थिति वाले जिलों के लिए बजट के एक मद से मोड़कर दूसरे मद में खर्च कर दी थी। यह कार्य अगर दूसरे किसी अधिकारी ने किया होता तो वह अपनी नौकरी खो बैठता। लेकिन क्योंकि यह कार्य जनहित के लिए स्थिति की तात्कालिकता को देख कर किया गया था, और सरकारी रेट टेप से बचने के लिए किया गया था, इसलिए उन पर कोई कार्यवाही नहीं की गई। ऐसा जोखिम भरा कार्य शंकरन साहब जैसा ईमानदार और संवेदनशील अधिकारी ही कर सकता था।
मुझे वह दृश्य आज तक याद है जब शंकरन साहब त्रिपुरा में अपना कार्यकाल पूरा होने पर सभी अनुमंडलों का भ्रमण कर रहे थे, और अपने अधिकारियों का धन्यवाद ज्ञापन कर रहे थे। इसी क्रम में वे सबरूम अनुमंडल में भी आए जहां पर मैं अनुमंडल पुलिस पदाधिकारी था। डाकबंगले में हुई गोष्ठी में तब मैंने खड़े हो कर उनसे यह कहा था कि यह बहुत अन्यायपूर्ण है कि हम होमगार्डों से पुलिस के सिपाहियों जैसा बहुत सारा कार्य लेते हैं और उन्हें सिपाहियों की अपेक्षा बहुत कम पगार देते हैं। निश्चित रुप से होमगार्ड के सिपाही पुलिस के सिपाहियों का विकल्प नहीं हो सकते क्योंकि वे निशस्त्र हुआ करते हैं। लेकिन इन दोनों के वेतन में इतनी बड़ी खाई होना उचित नहीं था। उन्होंने मुझे देर तक देखा। वे बहुत बोलते नहीं थे। लेकिन उन्होंने धीरे से कहा कि सरकार के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह इतनी बड़ी संख्या वाले होमगार्ड बल को बहुत अधिक पैसे दे सके। फिर भी वे देखेंगे कि क्या कर सकते हैं। स्थानांतरित हो चुका कोई मुख्यसचिव इतना बड़ा निर्णय लेने की स्थिति में नहीं होता। मगर जाने के पूर्व उन्होंने होमगार्ड का वेतन बढ़ाने के प्रस्ताव को कैबिनेट से पास करा कर चिठ्ठी प्रेषित करवा दी। गजब की विश्वसनीयता थी उनकी!
पी के सिद्धार्थ
17 दिसंबर, 2016
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