मेरा प्रिय छात्र तौसीफ (भाग 2)
पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल
इस प्रकार उच्चाधिकारी की सिफारिश पर तौसीफ मेरे शिक्षा-शिविर में प्रवेश कर गया।
शिक्षा-शिविर एक महीना लंबा था और ऐकडेमिक्स के नजरिये से घटनापूर्ण था। इसका विवरण एक छोटे-से उपन्यास का रूप ले सकता है। इसलिए विवरणों में न जाते हुए मैं तौसीफ पर ध्यान केंद्रित करना चाहूँगा।
मैंने कैम्प के दस्तावेजीकरण के लिए शिविर के पहले दिन तीन अलग-अलग स्वतंत्र मूल्यांकन टीमें बुलाई थीं। उनमें एक थी स्थानीय मीडिया की टीम। इसमें 22 या 24 अख़बारों और टी वी चैनलों के लोग थे। स्थान था एच ई सी का गेस्ट हाउस। मैंने मीडिया वालों को कहा कि आप लोग बच्चों से बात-चीत कर इनके विचारात्मक स्तर या कॉन्सेप्ट-फॉर्मेशन, आत्म-विश्वास, सम्प्रेषण-क्षमता, हिंदी-अंग्रेजी लिखने-बोलने की कुशलता आदि का अपनी और से मूल्यांकन करें। फिर शिविर शेष होने पर एक बार फिर से इनसे मुलाकात करें, और एक बार फिर देखें कि एक महीने में क्या फर्क पड़ा।
मीडियाकर्मियों ने बच्चों से बात-चीत कर अपनी ओर से इनका आकलन किया। फिर वे चले गए।
शिविर शुरू हुआ। जो बच्चे शिविर में आये थे, उनमें से अधिकांश पढ़ने-लिखने वाले बच्चे नहीं थे, ऐसा उनके शिक्षकों ने बताया। ये घूमने-फिरने वाले, मौज़ मस्ती करने वाले बच्चे थे। अनेकों एन सी सी के कैम्प कर चुके बच्चे थे, जो शायद फिर से एक कैम्प की मस्ती लूटने आए थे।
मगर जल्द ही बच्चों ने पढ़ाई में गति पकड़नी शुरू की। उनमे सबसे शांत तौसीफ था जो कभी बिना पूछे एक शब्द नहीं बोलता था।
मैं अपने कार्यालय से लौटने के बाद, अक्सर रात के भोजन के उपरांत, बच्चों को रात एक-दो बजे तक पढ़ाता था, और बच्चों की रात में ही नियमित परीक्षा भी लिया करता था। सुबह ऑफिस जाने के पूर्व भी देखता था, और दिन का भोजन भी बच्चों के साथ करता था। अलग-अलग चीजों के लिए नित्य प्रथम-द्वितीय-तृतीय आने के प्रमाणपत्र भी दिया करता था। इन प्रमाण-पत्र नामक कागज के टुकड़ों के लिए बच्चों में जबरदस्त होड़ लगा करती थी, और वे कभी-कभी रात भर जग कर पढ़ा करते थे। बाद में इनका सोना सुनिश्चित करने के लिए मुझे गार्ड बुलाने करने पड़े। बच्चे काफी उत्साह और उत्तेजना में रहा करते थे। मगर तौसीफ न तो कभी उत्तेजित दिखा, न उत्साहित या हतोत्साहित, बल्कि शांत भाव से अपना दिया हुआ काम करता रहा।
जल्द ही मैंने पाया कि अंग्रेजी की परीक्षाओं में तौसीफ सातवीं-आठवीं- नवीं के बच्चों के मेधावी बच्चों को भी पीछे छोड़ने लगा। उस 22 बच्चों के समूह में 4 या 5 बच्चे अत्यंत मेधावी थे। मगर वे छठी कक्षा के इस मूक बालक से पार नहीं पा रहे थे। अंत में शिविर समाप्त हुआ और एक सार्वजनिक समारोह कर उन्हीं मिडिया-कर्मियों को फिर उन बच्चों के आकलन के लिए बुलाया गया।
एक संक्षिप्त परिचयात्मक भाषण के बाद बच्चों की सार्वजानिक तौर पर मीडिया के समक्ष परीक्षा ली जाने लगी।
परीक्षा लेने के लिए अंग्रेजी अख़बारों के पत्रकारों को ही मैंने आमंत्रित किया। उन्हें उन डेढ़ हज़ार शब्दों की सूची भी थमा दी गयी जिन्हें कैंप के दौरान बच्चों ने याद किया था। फोनेटिक्स से सम्बद्ध प्रश्नों को भी उन्हें दे दिया गया। उन्होंने प्रश्न पूछने शुरू किये।
जैसे ही दो-तीन बच्चों की अंग्रेजी की सार्वजनिक परीक्षा खत्म हुई, तौसीफ न नंबर आ गया। पिछले बच्चों ने गलतियां तो न के बराबर ही की थीं, मगर बीच-बीच में कभी-कभी सोच कर बोलते थे, क्यों कि यहाँ काफी भीड़ थी और ढेर सारे कैमरे लगे हुए थे। इस तरह के माहौल में तो अच्छे-खासे लोग भी नर्वस हो जाते। मगर जब तौसीफ की परीक्षा शुरू हुई तो तौसीफ को किसी भी सवाल के जवाब में एक क्षण भी सोचना नहीं पड़ा। वह बलकुल बिना नर्वस हुए सारे सरल या कठिन सवालों का जवाब बिना जरा भी ठहरे देता चला गया। सारे अंग्रेजी शब्दों की स्पेलिंग, उच्चारण, अर्थ उसने सही बताये, और सभी फ़ोनेटिक सिंबल्स की ध्वनियाँ सही निकालीं।
मीडिया एकदम से सकते में आ गयी और उसने 10 मिनट के भीतर अपना धीरज खो दिया। अरफा-तरफी का माहौल हो गया। अख़बार वाले और टी वी चैनेल वाले खींच-खींच कर बच्चों को प्रांगण में इधर-उधर ले जाने लगे और उनका साक्षात्कार और 'बाइट्स' लेने लगे। मैं और बाकी शिक्षक-शिक्षिकाएं जिनमे विनीता, श्रीमती सुजाता गुप्ता और खुद मैं भी शामिल था, भुला दिए गए। जब उन्हें याद आया कि इस पूरे उपक्रम में हम लोगों की भी भूमिका थी, तो पत्रकारों ने थोडा रुक कर मुझसे भी बात-चीत करने का कोरम पूरा किया।
उन्होंने यह पूछा कि यह 'मिरेकल' कैसे हुआ। अन्य ने पूछा कि क्या ऐसा 'असंभव' कार्य स्कूलों में हमारी पद्धति से नहीं हो सकता?
मैंने कहा कि यह कोई मिरेकल नहीं है : कुछ तो युगों से स्थापित सामान्य शिक्षण-सिद्धांत हैं तथा कुछ हमारे द्वारा विकसित नयी तकनिकियां ऐसे परिणाम सभी स्कूलों में उत्पन्न कर सकती हैं। लेकिन हम कोई सरकार तो नहीं जो व्यापक स्तर पर सभी सरकरी स्कूलों में ये प्रयोग लागू कर सकें। इसपर एक राष्ट्रीय अंग्रेजी अख़बार की पत्रकार ने जो गैरवाजिब सवाल पूछा वह अभी तक मेरे जेहन में है : "क्या आप पत्रकारों के बच्चों के लिए एक शिविर आयोजित नहीं कर सकते?" मुझे मुस्कराते हुए इस सवाल का जवाब टालना पड़ा।
जब मैं पत्रकारों से निवृत्त हो कर विनीता की ओर मुड़ा तो मैंने देखा कि उनकी आँखों से आंसू आ गए थे। मुझे पिछले महीने सुबह चार बजे की कपकपाती ठंढ में मेरी पाठशाला में प्रवेश के लिए व्याकुल तौसीफ की आँखों से ढलकते आंसू याद आ गए। गलती तो मेरी ही थी। जब मुझे लर्निंग-आउटकम पर भावना की उत्कटता के प्रभाव की जाँच करनी थी तो तौसीफ को छांटने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी, क्योंकि उसके आंसुओं से बढ़ कर उसकी भावना की उत्कटता का प्रमाण और क्या हो सकता था? अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के अलावा उसकी तीव्र भावना ने उसे अपने से काफी ऊँची कक्षाओं के बच्चों को पीछे छोड़ने में मदद की थी। सभी बच्चों ने मिल कर सिद्ध कर दिया था कि भावना उत्कट हो और थोडा मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन मिल जाये तो न केवल पढाई में बल्कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में जीत प्राप्त करने से कोई रोक नहीं सकता।
शाम को दिल्ली और मुम्बई से फोन आ गए कि उनलोगों ने टी वी पर शिविर के बच्चों के अद्भुत प्रदर्शन का समाचार देखा। यानी देश भर में टी वी चैनलों ने इस शिविर का समाचार फ्लैश किया। अगले दिन सभी हिंदी-अंग्रेजी अख़बारों ने इस कैम्प के समाचार छापे, और कुछ प्रमुख अख़बारों ने तो हर एक बच्चे की तस्वीर तक छापी। इस प्रयोग ने देश के करोड़ों सुविधाविहीन और निर्धन बच्चों की अन्तर्निहित महान क्षमता पर मेरी आस्था दृढ कर दी।
पी के सिद्धार्थ
8252667070
pradeep.k.siddharth@gmail.com
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