Friday, 16 December 2016

मेरे प्रिय आइ ए एस अधिकारी : एस आर शंकरन

मेरे प्रिय आइ ए एस अधिकारी : एस आर शंकरन

पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल

व्यक्ति के निर्माण में और उसके चरित्र को आकार देने में 'रोल मॉडल्स' या आदर्श व्यक्तियों की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। मेरा कई मायनों में यह सौभाग्य रहा कि आई पी एस का अपना प्रशिक्षण हैदराबाद में पूरा करने के बाद मुझे त्रिपुरा काडर आवंटित हुआ, जहाँ मुझे कई ऐसे विरल चरित्र मिले, जिनसे बहुत-कुछ सीखा जा सकता था।

1983 में त्रिपुरा पहुँचने के बाद जिन तीन प्रमुख अधिकारियों से मेरा सरोकार पड़ा वे थे पुलिस महानिदेशक (DGP), मुख्य सचिव (Chief Secretary) और मुख्य मंत्री। इनमे से दो लोग अविवाहित थे और आदर्श रूप से ईमानदार थे - मुख्य सचिव एस आर शंकरन और मुख्य मंत्री नृपेन चक्रवर्ती। (विवाहित लोग मेरी बात का गलत मतलब नहीं निकालें; अविवाहित होने और ईमानदार होने में ज्यादा गहरा सम्बन्ध नहीं है।)

नए आईपीएस या आइ ए एस प्रोबेशनर्स जब राज्य में योगदान देते थे तो पुलिस महानिदेशक, मुख्य सचिव और मुख्य मंत्री से जरूर मिलते थे जिसे 'कॉल ऑन' कहा जाता था। अतः मैं भी अपनी औपचारिक पोशाक में, अर्थात वर्दी में, मुख्य सचिव श्री एस आर शंकरन से समय ले कर मिला। उनके कमरे में प्रवेश करने पर मैंने पाया कि मेरे सामने सूट-बूट में एक साधारण कद-काठी वाला इंसान बैठा था। चेहरे पर गंभीरता थी मगर उसके पीछे छिपी सदाशयता और करुणा मेरी निगाहों से छिपी नहीं रही। एक टिपिकल ब्यूरोक्रैट का अहं उस चेहरे की गंभीरता में कहीं  परिलक्षित नहीं हुआ। उन्होंने खड़े हो कर हाथ मिलाया, और मुझे बैठने को कहा। तमिलनाडु में जन्मे आँध्रप्रदेश काडर के श्री शंकरन कॉफी के बड़े शौक़ीन थे। उन्होंने कॉफी मंगाई और मुझे सहज किया।

जब तक कॉफी तैयार होती, उन्होंने मेरी पृष्ठभूमि के बारे में पूछना शुरू किया। यह भी कि समाज के गरीब तबकों के विषय में मैं क्या जानता-सोचता था। मैंने कहा, व्यक्तिगत रूप से मैंने कभी गरीबी नहीं देखी-भोगी, मगर अपने जन्मदिन के अवसर पर कभी-कभी बूट पॉलिश करने वालों को किसी रेस्तरां में ले जाकर उनके साथ भोजन करता था। मगर निश्चित रूप से उनके बारे में अधिक नहीं  जानता। शंकरन मेरी बातों से संतुष्ट दिखे। तबतक मुझे यह पता नहीं था  कि अंगरेज़ी सूट-बूट में मेरे सामने बैठा हुआ यह व्यक्ति गरीबों का कितना बड़ा मसीहा था। पुलिस अकैडमी में मेरे द्वारा गुजारे गए दिनों में कभी इस तरह की, यानी गरीब और सुविधाविहीन तबकों के बारे में, कोई चर्चा किसी अधिकारी ने क्लास रूम में या बाहर कभी भी नहीं की थी। इसलिए मेरे लिए यह नया अनुभव था। मैं 'बड़ा' अफसर था, और वे मुझसे और भी 'बहुत बड़े' अफसर थे। भला इतने बड़े अफसर क्या गरीब-गुरबा लोगों के बारे में बातें कर अपना समय ख़राब करते हैं,  ऐसी सामान्य प्रतिक्रिया अधिकांश अग्रेज़ीदां संभ्रांत अफसरों की होती, मगर इस प्रकार की वार्ता से पहली ही मुलाकात के बाद मेरी श्रद्धा इस  अफसर के प्रति स्थिर हो गयी।

बाद में श्री शंकरन के विषय में अधिक जानकारी दूसरे वरीय साथियों से मिली तो मेरी इज्जत उनके प्रति और बढ़ गयी। मुझे बताया गया कि कैसे उन्होंने रेड करा-करा कर बंधुआ मजदूरों को कई प्रदेशों के ईट-भट्ठों से मुक्त कराया था; कैसे वे बीच-बीच में सारे विभागों के सर्वोच्च अधिकारीयों की टीम लेकर 50-60 किलोमीटर पैदल चल कर पहाड़ों के बीच बसने वाले सबसे दूरस्थ गांवों में जाते थे जहाँ तक सड़कें नहीं जाती थीं, और जहाँ आधुनिक सभ्यता से नितांत अपरिचित ऐसे आदिवासी समुदाय रहा करते थे जिन्होंने जीवन में कभी पक्की सड़क के दर्शन नहीं किये थे।

पी के सिद्धार्थ
16 दिसंबर, 2016
www.pksiddharth.in

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