मेरा प्रिय छात्र तौसीफ (भाग 1)
पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल
तौसीफ अली 2006 में मुझे रांची में मिला। छोटा-सा, छठी क्लास का एक मासूम-सा दिखने वाला बच्चा जो भारी उद्योग निगम क्षेत्र की एक झुग्गी-झोपड़ी में अपने मजदूर पिता और परिवार के साथ रहा करता था, और 20 रुपये मासिक फीज़ वाले भारी उद्योग निगम के स्कूल में पढता था। तौसीफ और झुग्गियों में रहने वाले उसके स्कूल के अन्य 21 नन्हे साथियों ने मुझे आने वाले एक महीने में यह अहसास दिलाया कि कैसे हमारा देश झुग्गियों में रहने वाले हज़ारों नार्लीकर, न्यूटन, इंजीनियर, आइ ए एस, आइ पी एस, कवियों और कलाकारों की भ्रूण हत्या कर रहा है, उन्हें आपराधिक उपेक्षा का शिकार बना कर।
शिक्षा पर काम करते हुए आइ-क्यू या बुद्धि-लब्धि पर इंग्लैण्ड के एक शोधपत्र में पढ़ा था कि स्लम या झोपड़पट्टी के बच्चे मंद बुद्धि हुआ करते हैं। शायद कुपोषण की वजह से, या संभव है 'एक्सपोज़र' की कमी के कारण! दूसरी ओर यह भी देखा कि आधुनिक शिक्षा-शोध ने यह पाया है कि जीवन में, और सीखने में भी, आइ-क्यू या बुद्धि-लब्धि से अधिक महत्वपूर्ण ई- क्यू या भावना-लब्धि होती है।
मुझे उत्सुकता हुई कि झोपड़पट्टी के बच्चों के साथ एक महीने का एक आवासीय शिक्षा-शिविर आयोजित कर इन सिद्धांतों की सत्यता-असत्यता का व्यक्तिगत अनुभव प्राप्त करूँ। शिक्षा की मैंने कुछ अलग प्रणालियां भी विकसित की थीं। उन्हें सामान्य और सामान्य से बेहतर 'आइ-क्यू' के बच्चों पर सफलतापूर्वक आजमा चुका था। अब उन्हें झोपड़पट्टी के तथाकथित मंदबुद्धि बच्चों पर भी आजमाना चाह रहा था।
मैंने एक योजना बनायी। मेरे आवास एफ-5 के बगल में ठीक उतना ही बड़ा आवास कुछ दिनों से खाली पड़ा था। उसमें कुल 22 बच्चे रह सकते थे। तौसीफ के स्कूल के प्रधानाध्यापक के सहयोग से, जहाँ झुग्गी-झोपड़ी के बच्चे पढ़ा करते थे, 22 बच्चों को एक महीने के 'सम्पूर्ण शिक्षा शिविर' के लिए मैंने आमंत्रित किया।
पहले मैंने बच्चों को भारी उद्योग निगम के स्कूल में जा कर संबोधित किया। उन्हें बताया कि शिविर में रात- दिन पढ़ना-लिखना भी पड़ेगा, और व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास के लिए अन्य गतिविधियाँ भी करनी पड़ेंगी, और इस प्रकार उन्हें 'बड़ा आदमी' बनने की आधारशिला तैयार करने में उनकी मदद की जायेगी। मैं खुद ही पढ़ाऊंगा-सिखाऊंगा। लेकिन सिर्फ 22 बच्चों को ही ले पाउँगा, क्योंकि उतनी ही जगह थी हमारे पास। बच्चे सिर्फ सातवीं, आठवीं, नवीं के होंगे, पांचवीं या छठी के नहीं।
प्रधानाध्यापक ने कहा कि वे चुन कर इन कक्षाओं के सबसे मेधावी या उच्च आइ-क्यू वाले बच्चों को देंगे। लेकिन मैंने कहा कि मैं ऊँची आइ-क्यू के बच्चों को नहीं बल्कि प्रयोग के लिए उन बच्चों को लेना चाहूँगा जिनके अंदर बड़ा बनने की उत्कट भावना हो।
'मगर भावना का पता कैसे चलेगा?' प्रधानाध्यापक ने मुझसे पूछा।
'जो बच्चे परसों सुबह मेरे घर 3 से 4 के बीच में सबसे पहले आएंगे, उन 22 बच्चों को मैं ले लूंगा', मैंने बताया।
'रात में 3 और 4 के बीच?', प्रधानाध्यापक हैरान हुए।
'नहीं, सुबह 3 से 4 के बीच!', मैंने कहा। 'उस समय वे ही बच्चे आएंगे जो बहुत ज्यादा उत्कट भावना रखते होंगे। उन्हीं पर प्रयोग करूँगा!', मैंने उनकी हैरानी दूर की।
सुबह 2 बजे ही मैं और मेरी पत्नी विनीता कोठी के बरामदे में आ कर बैठ गए। बाहर कंपनी के प्राइवेट हाउस गार्ड को बता रखा था की 3 से 4 के बीच बच्चों को प्रवेश करने दिया जाय, रोका नहीं जाय, और ठीक 4 बजे प्रवेश बंद कर दिया जाय।
3 बजे से बच्चों के आने का सिलसिला शुरू हुआ। 4 बजे से ठीक पहले एक बहुत ही मासूम दिखने वाला छोटा बच्चा दाखिल हुआ।
मैंने उससे पूछा, 'क्या नाम है? किस क्लास में पढ़ते हो?'
'तौसीफ अली। छठी में।', उसने बहुत धीमे स्वर में बताया।
'मगर छठी क्लास के बच्चों को तो मैंने मना किया था! तुम अभी बैठो। सुबह होने पर चले जाना। तुम्हें मैं नहीं ले सकता', मैंने कहा।
तौसीफ ने कुछ नहीं कहा, मगर उसकी आँखों से आंसू टपकने लगे।
मैं थोड़ा परेशान हुआ, क्योंकि तौसीफ मेरे कार्यक्रम के लिए बहुत छोटा और मासूम था, और मेरे शिक्षण कार्यक्रम में बौद्धिक सामग्री काफी थी। विनीता ने उसके आंसू देख कर कहा कि ले लीजिये, बच्चे को बहुत मन है। विनीता 'कैम्प मदर' नियुक्त हुई थीं और मेरे बाद प्रमुख शिक्षिका वे ही थीं, इसलिए उनकी सिफारिश नहीं मानना संभव नहीं था।
इस प्रकार तौसीफ अली को मेरे मन के विरुद्ध मेरी पाठशाला में प्रवेश मिल गया।
इस शिविर में अंग्रेजी भी पढाई जा रही थी। शुद्ध उच्चारण के साथ अंग्रेजी बोलने के लिए फोनेटिक्स का भी प्रशिक्षण दिया जाना था इस कैम्प में पेडागोजी या पढ़ाने के कई तरीकों पर मुझे कई प्रयोग करने थे। एक प्रयोग यह भी था कि क्या झुग्गी- झोपड़ी के तथाकथित 'लो आइ-क्यू' या मंद बुद्धि बच्चे बाकी चीज़ें पढ़ते हुए अंग्रेजी के नए 50 शब्द स्पेलिंग, उच्चारण और अर्थ के साथ रोज इस प्रकार याद कर सकते हैं कि महीने भर बाद या कभी भी भूलें नहीं। एक प्रयोग यह भी था कि क्या इन झोपड़- पट्टी के बच्चों को, जिन्हें बोलने वाली अंग्रेजी से कभी पाला नहीं पड़ा, मूल अंग्रेजी ध्वनियों को सिखाया जा सकता था। (क्रमशः)
पी के सिद्धार्थ
21 दिसंबर, 2016
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