Monday, 12 December 2016

राजेंद्र सिंह के आश्रम में दो दिन (भाग 1)

जल पुरुष राजेंद्र सिंह के तरुण भारत संघ में दो दिन
(भाग 1)

पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल

जल पुरुष राजेन्द्र सिंह का आमंत्रण था 5 से 9 दिसंबर तक उनके तरुण भारत संघ आश्रम में रहने का - भिकमपुरा, जिला अलवर, राजस्थान में। अवसर : राष्ट्र चिंतन। पहुँचने पर शिविर का नामकरण देखा : 'सामजिक और पर्यावरणीय न्याय के लिए नेतृत्व निर्माण शिविर'। राजेन्द्र सिंह के जल से सम्बंधित कार्यों के बारे में काफी सुन रखा था। देखने की इच्छा थी। इसलिए आमन्त्रण स्वीकार करने में देर नहीं लगी।

पांचों दिन रहने की इच्छा थी, मगर एक लोकहित याचिका की सुनवाई एकाएक 9 को तय हो जाने के कारण 8 को ही सुबह निकलना पड़ा और 8 को ही रात रांची पहुँच कर 9 को न्यायलय में खड़ा होना पड़ा। ऐसी ही अपरिहार्य बाध्यताओं के कारण एक दिन देर से पहुँच पाया। अतः दो ही दिन आश्रम में गुज़र पाये। मगर आश्रम की ग्रामीण प्रकृति की ताज़गी अभी तक मन से उतरी नहीं।

4 ता: की रांची-दिल्ली राजधानी से इसलिए चला कि 5 की शाम 4 बजे की दिल्ली-अलवर ट्रेन पकड़ पाउँगा। मगर राजधानी एक्सप्रेस भी कोहरे के कारण 12 घंटे देरी से चल कर 5 ता: को रात साढ़े दस बजे दिल्ली पहुंची, और मेरी दिल्ली-अलवर ट्रेन छूट गयी। बीकानेर हाउस से 11:30 बजे की बस मिली जिससे सुबह 3:30 बचे अलवर-तिराहा पहुंचा, जहाँ आश्रम की जीप प्रतीक्षा कर रही थी। कई दशकों के बाद खड़ी पीठ वाली जीप पर चढ़ने पर ए. एस. पी. दिनों की यादें ताज़ी हो गयीं जब ऐसी ही महिंद्रा की जीपें सरकार मुहैया कराती थी। तिराहे से दो घंटे की यात्रा है आश्रम की जो एक सुदूर गांव में स्थित है। अंत के 25 किलोमीटर की सड़क काफी उबड़-खाबड़ है, जिसने हड्डियों की अच्छी मशक्कत करा दी। इस प्रकार रात भर जग कर सुबह सवा पांच बजे आश्रम में प्रवेश हुआ।

आश्रम के रखवाले सुरेश भाई को वाहन चालक भाई कालू राम ने फोन किया तो वे आँख मीचते स्वागत के लिए आए और मुझे कमरे में ले जाकर स्थापित किया, जहाँ मैंने दो-तीन घंटे की नींद ली। सुबह 9 बजे नाश्ता पानी कर कार्यक्रम स्थल पर पहुंचा जो एक बिल्डिंग की बड़ी-सी छत थी। नीचे दरियाँ बिछी हुई थीं जिस पर प्रतिभागी बैठे हुए थे। उनमे कुछ यूरोपीय लोग भी थे। कुछ छत की डेढ़ फुट ऊँची मुंडेर पर बैठे हुए थे। सामने वक्तव्य देने वालों के लिए 2-3 प्लास्टिक की कुर्सियां भी लगी हुई थीं। पीछे और अगल-बगल वृक्ष थे, हरियाली थी, और ऊपर से गिर रही थी सुबह के सूरज की सुषम मुलायम धूप, तिरछे कोण पर!

मैं जब वहां पहुंचा तो भाई राजेंद्र सिंह ने अपनी प्रकृति के अनुकूल उदारता पूर्वक स्वागत किया। जिनका भाषण चल रहा था वे उत्तराखंड के हिमालय की गोद से उठ कर आई एक युवा ग्रामीण क्रियावादी सुशीला बहन थीं। हिमालय की बर्फ ऐसी चिंगारियां भी उत्पन्न करती है, यह पता नहीं था। हिमालय की रक्षा के लिए ठेठ भाषा में क्रांति की आग ऊगली जा रही थी। मैं बहुत प्रभावित हुआ।

उनके भाषण के बाद जो गंगाजल हिमालय की गोद से लाया गया था, उससे आश्रम की उसी छत पर एक गागर में डाल कर गंगा की आश्रम में 'स्थापना' की गयी, जिस स्थापना में मैं भी शरीक रहा।

गंगा से मेरा चिरंतन प्रेम रहा है, और इस 'स्थापना' ने मेरा ह्रदय द्रवित कर दिया। इसके पहले का भाषण हिमालय और गंगा की रक्षा से ही सम्बंधित था। अतः इसके बाद मुझे जब बोलने को कहा गया तो माँ गंगा से अपने प्रेम की कहानी से शुरुआत करने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था। मगर शुरुआत करते ही माँ गंगा, जो अभी-अभी हुई अपनी स्थापना के समय से ही मेरे द्रवित ह्रदय में तरंगायित हो रही थीं, ह्रदय से उठ कर आँखों में आ गयीं। गला अवरुद्ध हो गया, और मैं कुर्सी पर बैठ गया। बगल में बैठे रमेश भाई ने मुझे गंगाजल दिया जिसे कंठ में उतार कर मैंने सहजता प्राप्त करने की कोशिश की। (गंगाजल अंतिम समय में देने का रिवाज़ है; मुझे लगता है रमेश भाई को यह महान भ्रम हो गया कि अब मेरा अंतिम समय आ गया था। रमेश भाई, ऐसा भ्रम न पालें; अभी तो अंत नहीं, शुरुआत है।)

फिर मैंने गंगा से अपने पुराने संबंधों की एक छोटी-सी कहानी सुनाई कि कैसे मैंने अपने को माँ गंगा की गोद में ऋषिकेश में आज से डेढ़ दशक पहले स्थापित किया था। गंगा से अपने संबंधों पर फिर कभी अलग से लिखूंगा। फिर समाजिक-आर्थिक-पर्यावरणीय न्याय के नेतृत्व विकास की जरुरत पर और उसके राजनीतिक कोण पर मैंने प्रकाश डाला। मैंने यह स्पष्ट किया कि हिमालय, गंगा और पर्यावरण को सिर्फ स्वयं सेवी संस्थाएं नहीं बचा पाएंगी। इसके लिए ईमानदार सामाजिक नेतृत्वकर्ताओं को मिल कर राजनितिक सत्ता में प्रवेश करना ही पड़ेगा। नहीं तो हमारे आज के बिकाऊ और स्वार्थी राजनेता हिमालय और गंगा को अंततः पूरी तरह बेच डालेंगे। (क्रमशः)

पी के सिद्धार्थ
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