जे पी और मैं
(भाग 2)
पी के सिद्धार्थ
www.pksiddharth.in
www.suraajdal.org
www.bharatiyachetna.org
जे पी से मेरी पहली मुलाकात गिरिडीह में हुई जहाँ मेरे पिता पदस्थापित थे। मैं सात साल की उम्र के आस-पास था। पहली-दूसरी क्लास में। जे पी गिरिडीह आये तो घर पर आए। माँ ने उन्हें खिलाया-पिलाया। फिर पिता जी ने उन्हें घर पर ही रुकने का आग्रह किया। इस पर जे पी ने भोजपुरी में कहा :"इहाँ रुक्ला से तू लोग के तकलीफ हो जाई। ढेर लोग मिले खातिर अइहें। सर्किट हाउस ठीक रही।" फिर उन्होंने परिवार के एक-एक व्यक्ति के बारे में पूछा कि कौन कहाँ है और क्या कर रहा है। तदोपरांत पिता जी उन्हें सर्किट हाउस छोड़ आये।
मेरे पिता जी की विशेषता थी कि वे किसी को अपनी और से एजुकेट करने में विश्वास नहीं रखते थे। मुझे भी जे पी के विषय में उन्होंने कुछ बताया ऐसा याद नहीं। मगर माता-पिता के हाव-भाव से लगा कि ये जरूर कोई खास व्यक्ति थे। जे पी की यह विशेषता अंत तक बनी रही। अंग्रेजी और हिंदी के बड़े विद्वान मगर परिवार में अपनी मातृभाषा भोजपुरी में ही बात-चीत। बहुओं को 'दुलहिन' कहना, जैसा कि मेरी माँ को उन्होंने संबोधित किया, जब गिरिडीह में पहली बार उन्हें देखा। बच्चा होते हुए भी दिमाग पर एक प्रभाव तो छोड़ ही गए : सौम्यता, सहजता, आत्मीयता, गंभीरता, और, सबसे बढ़ कर, इस सबके बीच 'बड़े आदमी' की एक गरिमा जो एक पब्लिक फिगर की पहले विशेषता हुआ करती थी।
(क्रमशः)
पी के सिद्धार्थ
15.09.2016
No comments:
Post a Comment