मेरे मित्र (भाग 2)
श्याम बेनेगल -1
पी के सिद्धार्थ
www.pksiddharth.in
www.suraajdal.org
www.bharatiyachetna.org
8252667070
श्याम से मेरी पहली मुलाकात 1996 में हुई। पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो की ओर से मुझे संगठित अपराध पर मुम्बई में एक बृहत् कॉन्फरेंस आयोजित करने का दायित्व दिया गया। कॉन्फ्रेंस के मेजबान थे पुलिस महानिदेशक, महाराष्ट्र। मैं बी पी आर डी की और से कॉन्फरेंस का आयोजक था। अतः जब मुझसे चर्चा की गयी कि किससे इस कॉन्फरेंस का उद्घाटन करवाया जाय, तो मैंने श्याम बेनेगल का नाम सुझाया। पुलिस अधिकारियों को मेरा प्रस्ताव तुरत समझ में नहीं आया, क्योंकि वे राष्ट्रपति या भारत के गृह मंत्री जैसे लोगों से उद्घाटन करवाने की सोच रहे थे। मगर मैं हमेशा राजसत्ता के अधिकारियों से लोकसत्ता के प्रतिनिधियों को अधिक मान्यता देता आया हूँ। मैंने आयोजक के तौर पर दबाव डाला कि कुछ नया किया जाय। वे मान गए। श्याम बाबू से मैंने बात की तो वे भी तैयार हो गए। फिर आमंत्रण कार्ड ले कर मैं खुद उनके कार्यालय गया, पेडर रोड में। उनके कार्यालय में पहुँच कर मैं हतप्रभ रह गया : घुस कर फिर बाहर निकल आया। यह तो फ़िल्म-रोल्स का अस्त-व्यस्त संग्रहालय लग रहा था। लोगों से फिर पूछा। लोगों ने कहा यही है, तो फिर प्रवेश किया।
श्याम एक अत्यंत नामी फ़िल्म निदेशक रहे हैं, यह बताने की जरुरत नहीं। मगर उनका कार्यालय चाकचिक्य से रहित बिलकुल साधारण-सा था, जिसमें एक कोने में उनकी फोल्डिंग डेस्क हुआ करती थी, जिसकी टेबुल-टॉप को काम करने के बाद उठा कर दीवार से लगा दिया जाता था।
श्याम ने आमंत्रण कार्ड देखा और मुस्कुराये।
'ड्रेस ऑर्डर'! - उन्होंने उच्चारण किया! उनके ललाट पर सलवटें पड़ गयीं!
मैंने कार्ड हाथ में लेकर देखा। हमेशा की तरह पुलिस वालों ने यह 'ऑर्डर' लिखा था कि कॉन्फरेंस में 'ड्रेस' कैसी पहन कर आनी है।
मैंने उन्हें बताया कि यह 'ऑर्डर' आपके लिए नहीं है, अन्य भाग लेने वालीं के लिए है।
'मैं तो हवाई चप्पल में ही आऊंगा!' उन्होंने कहा।
'बेशक, आइए!' मैंने कहा।
श्याम ने एक खटारा-सी पुरानी फिएट कार रखी थी। उसी में आये, और दीप जला कर कॉन्फरेंस का उद्घाटन किया। मैंने लक्ष्य किया कि दीप प्रज्ज्वलित करते वक्त उनके हाथ काँप रहे थे। मुझे लगा कि वर्दी वालों की भारी भीड़ के बीच यह उनकी पहली औपचारिक उपस्थिति थी। लेकिन जो भी हो, यह वर्दी वालों के सामान्य चरित्र पर एक अच्छी 'टिपण्णी' नहीं थी, जिनके बीच पहुँच कर एक इतने खास 'आम आदमी' के भी शरीर में कम्पन होने लगता है।
1998 में मन में विचार आया कि राष्ट्रीय मुद्दों पर विमर्श करने के लिए देश के चिंतनशील लोगों का एक समूह बनाया जाय। इस समूह के लिए जीवन के सभी क्षेत्रों से ईमानदार और चिंतनशील तथा सुनाम-अर्जित लोगों को आमंत्रित करने का विचार मन में बना। जब मीडिया और फिल्मों की बात आई तो पहला नाम जो उभर कर आया, वह था श्याम बेनेगल का। मैंने समूह या प्रस्तावित संस्था के उद्देश्यों को सामने रखते हुए एक पन्ने की एक चिट्ठी बनायी, प्रस्तावित संस्था के सदस्यता-फॉर्म की एक प्रति संलग्न की, और देश के कई ख्यात मानिंद लोगों को भेज दिया। श्याम भी उनमें से एक थे। मैंने पाया कि श्याम ने मेरे विचारों का अनुमोदन करते हुए सदस्यता-फॉर्म पर हस्ताक्षर कर तुरंत वापस भेज दिया।
(क्रमशः)
No comments:
Post a Comment