मेरे प्रिय मुख्य मंत्री : नृपेन चक्रवर्ती
भाग-4
पी के सिद्धार्थ
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हालाँकि मैं नृपेन दा का प्रशंसक था, मगर उनसे कभी व्यक्तिगत सम्बन्ध बनाने की कोशिश नहीं की। उन्हीं से नहीं, किसी भी राजनीतिक व्यक्ति से व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं बनाने का नौकरी के दौरान सिद्धांत बना रखा था। इसलिए उनके मुख्यमंत्री के पद से हटने के बाद सिर्फ एक मुलाकात हुई- साउथ डिस्ट्रिक्ट के लाठी-चार्ज के दिन। उसके बाद कभी नहीं। इसलिए व्यक्तिगत ज्ञान के आधार पर कोई सूचना उनके बारे में नहीं दे सकता। हाँ, उनके पार्टी-लाइन से हट कर कुछ बयान देने के कारण सीपीएम पार्टी ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया, यह समाचारों में आया, इसलिए ज्ञात है। मगर बीच-बीच में दूसरे अधिकारियों से, जो उनसे मिलते थे, उनके विषय में कुछ व्यक्तिगत जीवन की सूचनाएं मिलती रहती थीं। उसमें मुख्य सूचना यह रहती थी कि जब कोई उनसे मिलने जाता था तो उससे पैसे देने का आग्रह करते थे। यह भी कि उनके लिए जो पुलिसकर्मी उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा के लिये नियुक्त किये गए थे, जीवन के अंतिम चरण में उन्होंने ही उनके परिवार की तरह उनकी देख भाल की, उनके कपड़े साफ किये, उनके लिए खाना पकाया और उन्हें खिलाया-पिलाया। मेरे एक साथी अधिकारी के अनुसार, जब नृपेन दा के हाथ अशक्त हो गए तो बिलकुल अंतिम दिनों में उन्हीं पुलिसकर्मियों ने अपने हाथ में चम्मच पकड़ कर उन्हें खाना खिलाया। (मगर नृपेन दा के मुख्य सुरक्षाकर्मी की मानी जाय तो नृपेन दा के हाथ-पैर अंत तक चलते रहे।)
वे 99 की उम्र तक जिए, और सौवें साल में उनका अंत हुआ।
उनपर यह चौथी कड़ी लिखने के पूर्व मैंने उस असिस्टेंट सब इन्स्पेक्टर से फोन पर बात की जो उनके जीवन के 12 अंतिम वर्षों में लगातार उनके साथ रहा : नारायण चक्रवर्ती।
नारायण से जब मैंने नृपेन दा के अंतिम वर्षों के बारे में पूछा तो उसने कहा कि वे मानव नहीं 'गौड छिलेन' (ईश्वर थे)। यही वाक्य उसने अभिभूत हो कर कम से कम 6 बार कहा, भर्राये गले से। फिर कुछ देर के लिए उनकी वाणी रुद्ध हो गयी। उसने बताना शुरू किया कि एक बिस्किट भी वे बिना हमें दिए नहीं खाते थे। रोज कम से कम 15 से 20 गरीब बच्चों को भोजन जरूर कराते थे। मैंने जब पूछा कि किस प्रकार का भोजन, तो नारायण ने बताया कि एक ठोंगे में बिस्किट, केले, ऐपल, बड़ा वाला निम्बू आदि भर कर खिलाते थे। और जब कोई उनसे मिलने आता था तो उससे पूछते थे कि वह क्या करता है। अगर व्यवसायी या नौकरीशुदा व्यक्ति निकला तो उसे 100 रुपये देने का आग्रह करते थे। बाकी लोगों से कुछ नहीं माँगते थे। इन्हीं पैसों से बच्चों को खिलाते थे। कोई जरूरतमंद गरीब आ गया तो उसे अपने कपड़े भी दे देते थे, और जब नहा कर निकलते थे तो उनके स्वयं के लिए कपड़े पहनने को नहीं बच जाते थे। इसलिए उनके कपड़े उनके सुरक्षा कर्मियों ने छुपा कर रखने शुरू कर दिए।
अंतिम दिनों में उन्हें पार्टी ने वापस ले लिया। फिर एक दिन उन्हें खून की उल्टी हुई, जिसके बाद उन्हें कोलकाता ले जाया गया। वहां से लौटे तो दूसरे दिन ही उन्होंने अंतिम सांसें लीं।
यह बताते हुए नारायण रो पड़ा।
नृपेन दा एक विरल महापुरुष थे। अगर वे किसी बड़े राज्य के मुख्य मंत्री रहे होते तो उन्हें सारी दुनिया जानती। मगर ऐसे महापुरुष दुनिया द्वारा जाने जाने के लिए तो सत्कर्म नहीं करते! दुनिया उन्हें जाने न जाने, नृपेन दा हमेशा मेरे आदर्श रहेंगे! अगर मुझे भगवद्गीता का कोई भी ज्ञान है, तो मैं कह सकता हूँ कि 'अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् मैत्रः करुण एव च...' के मैंने नृपेन दा से बढ़ कर कम ही उदहारण देखे। और इसीलिए यह मानता रहा हूँ कि मरने के बाद अगर उच्चतम कोई गति अगर होती है तो वह गति पाने के लिए यह जरूरी नहीं कि कोई ईश्वर को माने, बल्कि यह जरुरी है कि ईश्वर उसे माने। निश्चय ही नृपेन दा उन्हीं लोगों में से थे जिनके विषय में भगवान गीता में कहते हैं - 'स में प्रियः' - वह मुझे प्रिय है! अगर ईश्वर है, तो ऐसे ही व्यक्ति ईश्वर को प्राप्त होते हैं जो जीवनपर्यंत सभी के हित में लगे रहते हैं - 'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्व भूत हिते रताः।'
मैं लाल सलाम तो आपको नहीं कह सकता, नृपेन दा, क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं हूँ। मगर सलाम तो जरूर कहूँगा! आपको सैकड़ों सलाम! एक बार फिर आइये नृपेन दा, क्योंकि अभी आप ही जैसे इंसानों और मुख्यमंत्रियों की देश को जरुरत है!
पी के सिद्धार्थ
9 सितम्बर, 2016
pradeep.k.siddharth@gmail.com
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