Monday, 12 September 2016

हमारी धरती माँ और हम!

हमारी धरती माँ और हम!

पी के सिद्धार्थ
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मैं अपने ड्राइंग रूम मैं बैठ कर एक समूह कुछ लोगों के साथ एक लोकहित याचिका पर काम कर रहा हूँ। दरवाजा ताज़ी हवा के लिए खोल रखा है। इसी बीच एक युवक कहीं से दरवाज़े के फ्रेम में प्रकट होता है। हाथ में मोटी-मोटी किताबें हैं।

"सर, मैं नैशन्सल जियोग्रफी से हूँ। इसकी एक किताब आपको दिखाना चाहता हूँ। मैं अंदर आ सकता हूँ?"

मैं इधर-उधर देखता हूँ। वित्त-सह-गृह मंत्री कहीं आस-पास नहीं दिखती हैं। शायद किचन में हैं।

सुरक्षित महसूस कर मैं युवक को इशारे से अंदर बुलाता हूँ।

अंदर आकर वह बताता है कि नैशनल जियोग्राफी की किताब 'आंसर बुक', जो ढाई हज़ार रुपयों की है, सिर्फ एक हज़ार में देने का ऑफर है। उसके साथ डी के-पेंगुइन की  बड़ी-सी आर्ट पेपर पर छपी रंगीन विज़ुअल डिक्शनरी मुफ़्त!

"नौजवान, परेशानी यह है कि मेरे घर में किताब रखने की कोई जगह नहीं बच गई है।"

"सर, लेटेस्ट बुक है। आप एन्जॉय करेंगे।"

"भाई, अगर किताबों के लिए जगह बनाने के लिए मुझे घर से निकाल दिया गया तो?"

मैं किताबों के प्रकाशन की तिथि देखता हूँ : 2016। अंदर देखता हूँ : पृथ्वी से लेकर ब्रह्माण्ड तक पर अद्यतन तथ्य। सामने एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के 29 मोटे-मोटे खंड शेल्फ में पड़े मुझे घूर रहे होते हैं। मगर वे तो 25 साल पुराने हो चुके हैं। उनमें पिछले 25 वर्षों की बिलकुल अद्यतन वैज्ञानिक खोजें नहीं मिलेंगी।

मैं गृह-निर्वासन का खतरा मोल लेते हुए जेब से अपने पॉकेट खर्च के पैसों में से हज़ार रुपये निकाल कर किताबें खरीद लेता हूँ। युवक प्रसन्न भाव से चला जाता है।

रात में दोनों पुस्तकों को बिस्तर में पड़े-पड़े उलटता-पलटता अपने ज्ञान को अद्यतन करता हूँ। धीरे-धीरे नींद आ जाती है।

अचानक मैं  देखता हूँ कि मैं धरती पर सीधा खड़ा हूँ, और मेरा शरीर आसमान की ओर बड़ा होने लगा है। मैं नीचे देखता हूँ। धरती किसी फुटबॉल-जैसी छोटी हो गयी है। मैं धरती के चारों और घूमता हूँ, शेषनाग को तलाशने के लिए जिनके फन पर, कभी कोई पुराण पढ़ कर मेरी दादी ने बताया था, धरती टिकी रहती है। मैं पाता हूँ कि धरती तो आसमान में यूँ ही लटकी हुई है! कहीं कोई शेषनाग और उनका फन नहीं दिखता! मैं यह भी देख पाता हूँ कि धरती न तो 'डिस्क' जैसी है, न सपाट। यह तो फुटबॉल जैसी गोल है! फिर ह्यूमन राइट्स वाच की वह रिपोर्ट याद आती है जिसके अनुसार बोको हरम ने नाइजीरिया में 2009 से अबतक 600 भूगोल के शिक्षकों और छात्रों को अब तक गोलियों से भून डाला है क्योंकि वहाँ भूगोल की कक्षाओं में शिक्षक पढ़ा रहे हैं कि धरती गोल है, कालीन की तरह सपाट नहीं, जैसा कि बोको हरम के अनुसार उनके नबी और खुदा ने बताया है!" नाहक 600 निर्दोष लोगों की जान ली।", मैं सोचता हूँ।

मैं धरती को अंतरिक्ष से देख कर अचरज में पड़ जाता हूँ! इतनी सुन्दर! धरती पर तो तीन-चौथाई सतह पर पानी-ही-पानी है, धरती को गहरा नीला रंग प्रदान करता हुआ!  कितनी सुन्दर है यह धरती!

मेरा शरीर और बड़ा होता चला जाता है। धरती फुटबॉल के आकार से भी छोटी होकर एक बिंदु की तरह हो जाती है, और फिर नजरों से ओझल हो जाती है। पहले सूरज के करीब आता हूँ। ओह, बहुत गरम! मैं दूर हटता हूँ। ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता हूँ, हज़ारों सूरज-जैसे और उससे भी बड़े-बड़े आग के जलते हुए गोले, जिन्हें 'स्टार' या सितारा कहता रहा हूँ, और जिन्हें देख कर बचपन में 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार' गाया करता था, बड़े ही तप्त और पीड़ादायी लगते हैं। लाखों-करोड़ों डिग्री सेल्सियस की गर्मी! लेकिन तारों से दूर खली स्पेस में जाता हूँ तो असह्य ठंड लगती है। फिर इधर से उधर भागते हुए उल्कापिंड और ग्रहिकाएं - जैसे चारों और से पथराव हो रहा हो। उनसे बचते-बचाते ऊपर उठता जाता हूँ। बीच-बीच में तारों के बीच की इंटर-स्टेलर धूल और गरम गैस के आलोकित बादल जिन्हें हम निहारिका या नेब्युला कहते रहे हैं, त्रास देते हैं।

अब मैं इतना बड़ा हो चुका हूँ कि हमारे सूरज भगवान, जिसकी स्तुति में कभी 'आदित्य ह्रदय स्तोत्र' पढ़ा करता था,  होते-होते एक तारे के बिंदु-जैसे हो जाते हैं, और करोड़ों सितारों के बीच कहीं खो जाते हैं!  मैं इतना बड़ा हो गया हूं कि अपनी मिल्की-वे गैलेक्सी दिवाली में फर्श पर प्रकाश के छर्रे छोड़ती किसी घूमती हुई घिरनी की तरह दिख रही है, जिसके मध्य में सघन प्रकाश पुंज और चारों ओर इसी से जुड़ी प्रकाश के छर्रों की गोल स्पाइरल 'आर्म्स'। पूरे अंतरिक्ष में चारों और ऐसी ही दीवाली, विस्फोट, आतिशबाजी! तारों के बीच के विशाल खाली अंतरिक्ष में धुप अँधेरा: सिर्फ तारों और नीहारिकाओं के नजदीक प्रकाश।

तभी मैं देखता हूं कि मेरी ओर अंतरिक्ष से दो लोग चले आ रहे हैं। दो इंसानों को देख कर भय कम होता है और सुकून मिलता है। मैं पूछता हूं, 'आपलोग कौन?'

उनमें से एक बताते हैं, "मेरा नाम है एडविन हबल।" दूसरे सज्जन कहते हैं कि उनका नाम है हारलो शैप्ली।

"अरे, आप दोनों तो प्रसिद्ध अंतरिक्ष- विज्ञानी हैं!"

"सही पहचाना आपने! हम उनकी आत्मा हैं जो मृत्यु के बाद अंतरिक्ष के रहस्य आगे और तलाशने के लिए घूमते रहते हैं!"

"भाई, यह जो खाली अंतरिक्ष का खरबों किलोमीटर का जो खाली अंतरिक्षीय शुन्य या वैक्यूम है, यहाँ का तापमान क्या है? असह्य ठण्ड है!"

"ऐब्सल्युट ज़ीरो", शैप्ली बताते हैं।

"यह क्या होता है?", मैं ठिठुरता हुआ पूछता हूँ।

"इस तापमान पर मॉलिक्यूल, ऐटम और एलेक्ट्रोन की गति ठहर जाती है।"

"देखिये दोस्तो, मैं बड़ा परेशान हूं। पता नहीं मुझे क्या हो गया है। मैं बड़ा होता चला जा रहा हूं। यह मेरी बायीं ओर मेरी मिल्की-वे आकाशगंगा दिख रही है, जिससे मैं अभी-अभी निकला हूँ! मैं खोज नहीं पा रहा हूं कि इसमें सौरमंडल कहां है, सूरज कहां है, मेरी धरती कहां है! आखिर कितने सूरज-जैसे तारे हैं, इसमें?"

"मेरे भाई, यह तो एक बहुत ही साधारण-सी आकाशगंगा है. इसके एक छोर से दूसरे छोर तक जाने में सिर्फ एक लाख प्रकाशवर्ष लगते हैं, यानी एक छोर से दूसरे छोर तक यह सिर्फ 9460 अरब किलोमीटर है।", हबल बताते हैं। "इसमें 100 अरब से ज्यादा सूरज-जैसे सितारे हैं, जिनमें हमारा सूरज भी एक है। कई सितारे सूरज से हज़ार गुने बड़े हैं!"

मैं अपने माथे का पसीना पोछता हूँ।

"अभी तक वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि ब्रह्मांड में कम-से-कम 10 अरब गैलेक्सियां हैं, जिनमें से प्रत्येक में  औसतन 100 अरब सितारे मौजूद  हैं।  हर क्षण करोड़ों सितारों की मृत्यु हो रही है। जैसे दीवाली में हमारी फुलझड़ी जल कर खत्म हो जाती है वैसे ही सितारे जलकर अंत में शेष हो जाते हैं। एक दिन हमारा सूरज भी शेष हो जाएगा। सूरज अपनी आधी जिंदगी जी चुका है। कुछ अरब वर्षों में वह भी बुझ जायेगा, और उसके साथ धरती का भी अंत हो जायेगा, क्योंकि सूरज की गरमी से ही धरती पर जीवन है। करोड़ों सितारे हर क्षण अंतरिक्ष में इन निहारिकाओं की गैस से घनीभूत हो कर जन्म भी ले रहे हैं!"

"यह हमारी गैलेक्सी के सबसे नजदीक जो गैलेक्सी दिख रही है, उनका नाम क्या है?', मैं पूछता हूँ।

शैप्ली उँगली से संकेत कर बताते हैं, "ये है ऎंड्रॉमिडा आकाशगंगा। हमारी मिल्की-वे की तरह ही स्पाइरल गैलेक्सी है जैसा कि आप देख सकते हैं।"

"और ये सारी आकाशगंगाऐं आकाशगंगाओं के एक बड़े समूह या 'क्लस्टर' का हिस्सा हैं, जिसे 'वर्गों सुपरक्लस्टर' कहते हैं। हमारे जैसी एक लाख आकाशगंगाएँ  इस वर्गों क्लस्टर में हैं!", हबल आगे बताते हैं।

"ये बताएं दोस्तों, आखिर पूरे ब्रह्माण्ड के सभी सितारों, आकाशगंगाओं और क्लस्टसर्स के नाम अंग्रेजी और यूरोपीय भाषाओँ में ही क्यों हैं? उर्दू, फारसी, अरबी, हिंदी, संस्कृत में क्यों नहीं?", मैं पूछता हूँ।

हबल और शैप्ली एक दूसरे की और देखते हैं, फिर मुस्कराते हैं।

"मुझे लगता है कि उर्दू, फारसी और अरबी लिखने-पढ़ने वाले सारा ज्ञान कुरान-हदीस में खोजते रहते हैं; और संस्कृत वाले, सुना हैं, यह मानते हैं कि 'जो ज्ञान वेदों में नहीं, वह कहीं नहीं'! इसलिए वे किसी सितारे, आकाशगंगा या क्लस्टर की तलाश में समय नष्ट नहीं करते। उनके नबी और ऋषि सभी कुछ पहले से ही जानते हैं। जो इन सितारों,  गैलेक्सियों को तलाशेंगे उन्हीं की भाषा और उन्हीं के नाम पर तो इन चीजों के नाम रखे जाएंगे न!", हबल मुस्कुरा कर स्पष्ट करते हैं।

"लेकिन हिंदीभाषी?", मैं पूछता हूँ। वे तो किसी धर्मग्रन्थ से चिपके नहीं रहते! मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उन्होंने तो कई दशकों से किसी धर्मग्रन्थ को हाथ तक नहीं लगाया! वे तो आज अपने किसी ऋषि का नाम तक नहीं जानते!", मैं कहता हूँ।

"मैंने सुना है वे अब विज्ञान में कुछ-कुछ कर रहे हैं, मगर उनकी आत्माएं यह बताती हैं कि वे ज्यादा समय बिना किसी राजनितिक दल में शामिल हुए भी राजनीति में ही, और जातीय समीकरण बिठाने में लगाते है! आप उनके बारे में ज्यादा जानते होंगे!", शैप्ली फुसफुसा कर धीरे से मेरे कान के नजदीक आ कर कहते हैं।

"क्या आपको पता चला यह ब्रह्मांड कितना बड़ा है और कहां इसका अंत होता है?",  मैं बात बदलता हूँ।

"नहीं, कोई पता नहीं! अभी तक 10 अरब आकाशगंगाओं  का पता चला है जिनमें से प्रत्येक में औसतन 100 अरब सितारे पाये गए हैं। अभी आगे खोज चल ही रही है! इस ब्रह्माण्ड का अंत कहाँ होता है यह नहीं पता चलता।"

"कहीं आपको पानी मिला?"

"नहीं, अभी तक तो नहीं!"

"लेकिन बाइबल तो कहती है जब सृष्टि नहीं हुई थी तब सर्वत्र जल ही जल था, जिस पर ईश्वर की आत्मा तैर रही थी! कहाँ गया वह सब पानी?", अबकी बार उनपर प्रहार करता हुआ, बदला लेने की कोशिश करता हुआ,  मैं प्रश्न दागता हूँ।

"मुझे तो पूरे ब्रह्माण्ड में अभी तक कहीं तरल अवस्था में जल नजर नहीं आया।", हबल अपना सर खुजलाते हुए बताते हैं।

"क्या कहीं आपको जीवन नजर आया?"

"हो सकता है कहीं बैक्टीरिया के रूप में हो, लेकिन विकसित जीवन तो कहीं नहीं दिखा। वही तो हम तलाश रहे हैं।" इस बार शैप्ली निराशापूर्वक कहते हैं।

"अंतरिक्ष तो बड़ा भयावह है। चारों ओर धुप अंधेरा और पूरे अंतरिक्ष में अनवरत आतिशबाजी और रोड़ेबाजी। कहीं जल की शीतलता और नीलापन नहीं दिखता। सब जगह आग, ताप, कहीं असह्य ठंढ! कहीं भी जीवन नहीं। मित्रो, मुझे मेरा सौरमंडल, मेरी धरती मुझे दिखा दो! मुझे वहां ले चलो! मैं तुम्हारा सदा कृतज्ञ रहूँगा।

चलो साथी, चलते हैं। हमें पता है आपकी धरती कहां है। वह आपकी मिल्की-वे गैलेक्सी के केंद्र से काफी हट कर उसके ओरियन आर्म में स्थित है।

मैं उन दोनों को गले लगा लेता हूं। हम तीनों चलते हैं अपनी धरती की ओर। मेरा शरीर छोटा होने लगता है। ओह दूर से ये सितारे कितने सुंदर लगते हैं, लेकिन नजदीक जाने पर कितने गरम, भयानक और आक्रामक हैं ये!

यह देखो हमारी धरती आ गई! शीतल, नीले रंग वाली, जिस पर जीवन  का अंकुर है, जिस पर सोचने समझने और महसूस करने वाला इंसान नाम का जीव भी रहता है, जो सोच सकता है, भावनाएं महसूस कर सकता है, प्रेम कर सकता है! पूरे ब्रह्माण्ड में एकमात्र ऐसा जीव! और ऐसे जीव और जीवन को धारण करने वाला पूरे ब्रह्माण्ड में एकमात्र ऐसी जगह - हमारी धरती!अंतरिक्ष से नीचे उतरते हुए लगता है इस प्यारी धरती को बाँहों में भर लूँ!

इसी बीच नींद खुल जाती है, और मैं बिस्तर पर उठकर बैठ जाता हूँ! मैं फिर अपनी प्यारी धरती पर हूं, यह अहसास मुझे अभिभूत कर लेता है।

कल खरीदी गयी पुस्तकें मेरी बगल में पड़ी हैं, मुझे प्यार से निहारती हुई। मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने मुझे पूरे ब्रह्माण्ड की सैर कराई। मगर तभी कमरे में हर्बल टी लिए गृहस्वामिनी का प्रवेश होता है।

"आपने फिर साढ़े चार हज़ार रुपये फूँक दिए!"
"नहीं भई, ब्रह्माण्ड घूमने में कोई पैसे नहीं लगे!"
"क्या मतलब?", गृहस्वामिनी हैरान हो कर मुझे देखती हैं! "अभी भी नींद में हैं क्या? मैं इन किताबों की बात कर रही हूँ!", वे  किताबों की और इशारा कर फरमाती हैं।

"ओह, समझा! नहीं भई, सिर्फ एक हज़ार लगे!"
"मैंने कीमत देखी है! दोनों मिला कर 4494 रुपये!"
"मगर स्पेशल ऑफर में सिर्फ 1000 में मिल गए!"
"अच्छा, मगर किस बुकशेल्फ में डालेंगे? कोई जगह भी तो होनी चाहिए घर में!"

विरोध जाता कर, ब्रह्माण्ड की मेरी सैर से बेखबर गृहस्वामिनी चाय की चुस्कियां लेती हुई व्हाट्स ऐप में आये चुटकुले और सन्देश देखने अपनी आकाशगंगा में व्यस्त हो जाती हैं, और मैं सोचता रह जाता हूँ, क्यों हम पूरे ब्रह्माण्ड में सबसे अनोखी अपनी इस प्यारी धरती को नष्ट करने पर क्यों तुले हुए हैं! पर्यावरण का नाश, सांप्रदायिक दंगे, नस्लभेद, आतंकवाद, नफरत, जाति-पाति, लड़ाई-झगड़े! आखिर कब तक हम समूचे ब्रह्माण्ड में सबसे अनमोल अपने मानवीय अस्तित्व का मूल्य समझ पाएंगे!

पी के सिद्धार्थ
12 सितम्बर, 2016

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