कल 2 सितम्बर को ट्रेड यूनियनों की रैली में जो भाषण दिया उसके अंश यहाँ उद्धृत हैं -
सभी मजदूर भाइयों-बहनों का अभिनन्दन !
अभी भाई शैलेन्द्र ने राष्ट्रीय भावना की बड़ी अच्छी व्याख्या की। हमारा तिरंगा उस राष्ट्रीय भावना को प्रतिबिंबित करता है। मगर यह तिरंगा किसने बनाया? कपास किसान ने उगाये। उस कपास से सूत मजदूरों ने काते। बुनकरों ने इन सूतों से इस तिरंगे को बुना।
हमने ही वे सूत बनाये
जिनसे बना तिरंगा,
वह फौलाद हमीं ने ढाला
जिस पर खड़ा तिरंगा!
गए फिरंगी उड़ा तिरंगा
आज़ादी है आई,
धनियों को धनवान बनाया,
हमरे हित क्या लायी?
हम तो अब भी इसी जमीं पर
गमछा वही बिछाते,
और गगन को ओढ़, भूख से
मचल कहीं सो जाते!
सच है! देश के 33 प्रतिशत मजदूरों की, जिनमें 31 प्रतिशत से भी अधिक असंगठित मज़दूर हैं, चिंता सत्तासीन लोगों को नहीं रहती। 57 प्रतिशत किसान-परिवार के लोग हैं, जिनकी चिंता भी सत्तासीन लोगों को नहीं सताती। बड़े पूंजीपति देश का शासन परदे के पीछे से चलाते रहे हैं, सरकार चाहे कांग्रेस की हो या बी जे पी की। थोड़े-बहुत का ही फर्क रह गया है।
एक निम्नतम स्तर के तृतीय श्रेणी के केंद्रीय सरकारी कर्मचारी की आय छठे वेतन आयोग के हिसाब से 48 हज़ार रुपये महीना है, अगर उसके न्यूनतम और उच्चतम स्केल को जोड़ कर औसत निकाल दिया जाय।
यानि 1600 रुपये रोज। एक उच्चतम स्तर के अधिकारी का 5000 रुपये रोज। दूसरी और एक मनरेगा मजदूर की दैनिक मजदूरी 167 रुपये है। एक अकुशल मजदूर की 257 रु रोज। उसे हफ्ते में औसतन 4 दिन ही काम मिल पाता है। तीन दिन वह ट्रेन से टिकट ले कर आता जाता है, और काम न पा कर निराश लौट जाता है। यानि महीने में कुल ढाई-तीन हज़ार या दैनिक 100 रुपये मात्र। सरकारी नौकरों के लिए आजीवन सारा बढ़िया-से-बढ़िया खर्चीला इलाज़ और दवाइयाँ मुफ़्त।130 करोड़ वाले देश में मात्र 1.8 करोड़ सरकारी सेवक हैं। सारा देश या तो उनके हित साधन या बड़े पूंजीपति घरानों के हितसाधन के लिए चलाया जा रहा है। उन घरानों के लाखों करोड़ के ऋण माफ़ किये जा रहे हैं। 'पब्लिक सर्वेंट' या 'लोकसेवक' कहे जाने वाले लोगों के लिए सबकुछ और 'पब्लिक या 'लोक' यानि किसान-मजदूर के लिए कुछ भी नहीं! महज सौ रुपये रोज!
मैंने प्रधान मंत्री को लिखा था कि सरकारी नौकरों की वेतन वृद्धि अनावश्यक है। उनके पास पर्याप्त है। छठे वेतन आयोग में उनके वेतन में जबरदस्त वृद्धि इस आशा में की गयी थी कि इसके बाद वे भष्टाचार नहीं करेंगे। मगर क्या उनका भ्रष्टाचार कम हुआ? उलटे बढ़ गया। उनके वेतन को अगले वेतन आयोग तक फ्रीज़ किया जाय और उनकी वेतन वृद्धि के लिए जो एक लाख करोड़ प्रति वर्ष का बोझ सरकार उठाने जा रही है उसे असंगठित मजदूरों के न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने और किसानों को मासिक भत्ता देने के लिए डाइवर्ट कर दिया जाय। एक लाख करोड़ में यह काम हो जायेगा। मगर मजदूर किसान की कौन सुनता है!
मजदूर तो जब मेहनत कर ताजमहल बनाता है तो उसके हाथ काट लिए जाते हैं।
ताजमहल गढ़-गढ़ कर हमने
अपना हाथ गंवाया,
शाहजहाँ को याद रखा
दुनिया ने हमें भुलाया।
रचने गढ़ने में जग हमने
जान लगा दी सारी,
मगर कभी कवियों ने गायी
गाथा नहीं हमारी।
भारत के मजदूर किसानो
उठो सामने आओ,
बहुत हो चुकी नाइंसाफी
यह अन्याय मिटाओ!
न केवल मजदूरों बल्कि किसानों को भी अन्याय के खिलाफ संगठित होना है। आज किसान की क्या हालत है?
चीर जमीं का सीना हमने
ये फसलें उपजाई
जीवित रखा धनी निर्धन को
सबकी भूख मिटाई।
मगर भूख से मरे स्वयं हम
बच्चे मरे हमारे,
संसद में आंकड़े गिना कर
सब हो लिए किनारे।
इस लिए भाइयो और बहनों! अब संगठित हो कर अपने अधिकारो के लिए लड़ने की जरुरत है। इसलिए नारा लगाइये -
मजदुर एकता जिंदाबाद!
जिंदाबाद, जिंदाबाद!
हम सबको मिल कर लड़ना है! न केवल मजदूरों-किसानों को, बल्कि सभी जातियों-धर्मों को। हिंदुस्तान की बेहतरी के लिए। आज हिंदुस्तान ही हमारी जाति है, और हिंदुस्तान ही हमारा धर्म!
तो आइये एक नया नारा लगते हैं! मैं बोलूंगा 'मेरी जाति' आप बोलेंगे हिंदुस्तान'। मैं बोलूंगा 'मेरा मजहब'। आप बोलेंगे, 'हिंदुस्तान'। मैं बोलूंगा 'सबसे पहले', आप बोलेंगे 'हिंदुस्तान'!
मेरी जाति......हिंदुस्तान!
मेरा मजहब .... हिंदुस्तान!
सबसे पहले ..... हिंदुस्तान!
असंगठित मजदूर की प्रतिदिन की मजदूरी 600 रुपये रोज हो, ऐसी व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए। अन्यथा संविधान से 'सोशलिस्ट' रिपब्लिक का शब्द डिलीट कर देना चाहिए।
हम मजदूर एकता का नारा लगाते हैं। लेकिन मजदूरों के हिमायती संगठनों की एकता का क्या? उन्हें भी एक साथ आना होगा। तभी कुछ हो पायेगा।
जय हिन्द!
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