Wednesday, 7 September 2016

मेरे मित्र श्याम बेनेगल -3

मेरे मित्र
श्याम बेनेगल -3

पी के सिद्धार्थ
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2005 में मैंने गरीबी-निवारण कैसे हो, इस विषय पर शोध शुरू किया। मैंने पाया कि 2001-2 की जनगणना के मुताबिक भारत के 57% लोग किसान या किसान परिवार के थे। 2004-5 में नैशनल सैम्पल सर्वे ओर्गेनाइज़ेशन ने किसानों की आय का जो सर्वेक्षण किया उससे यह पता चला कि भारत के एक किसान परिवार की औसत मासिक आय मात्र 2200 रुपयों के आस-पास थी, जो उस समय दिल्ली में एक महरी की आमदनी से भी कम थी। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट था कि जब तक किसानों की गरीबी दूर नहीं होती तब तक देश की गरीबी नहीं मिटाई जा सकती। अतः हम लोगों ने स्थानीय कृषि विश्वविद्यालय और भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् के स्थानीय केंद्र से मिल एक फ़िल्म श्रृंखला का निर्माण किया जिसका नाम था 'खेती से लखपति'। इस श्रृंखला में गरीब से अत्यंत अमीर बने कुछ किसानों की जीवनियां थीं, और कृषि की उन्नत तकनीकों पर कुछ विशुद्ध प्रशिक्षण-फिल्में। ये फिल्में सिर्फ किसानों को खेती से लखपति बनाने के उद्देश्य से मुख्यतः हमारे निजी संसाधनों से बनायीं गयी थीं, न कि दूरदर्शन आदि पर प्रसारण के लिए। एक दिन मैं दिल्ली में दूरदर्शन के मुख्यालय से हो कर गुजर रहा था तो उसके परिसर में प्रवेश कर गया, और इसकी सी ई ओ अरुणा शर्मा से हेलो करने पहुँच गया। अरुणा एक बहुत ही त्वरित निर्णय लेने वाली साफ़-सुथरी आई ए एस अधिकारी के रूप में जानी जाती रही हैं। मैं बता दूँ कि आज अफसर काम करने के लिए कम, काम लटकाने के लिए ज्यादा जाने जाते हैं। उन्हें मैंने 'खेती से लखपति' की पहली वोल्यूम गिफ्ट की। उन्होंने तत्काल अपने कंप्यूटर में लगा कर दस मिनट देखा, और मुझसे आग्रह किया कि मैं उन्हें डी डी नैशनल पर एक साप्ताहिक सिरियल के रूप में चलाने की अनुमति दूँ। मैंने हाँ कह दी। मगर जल्द ही मुझे अहसास हुआ कि फ़िल्म की गुणवत्ता वैसी नहीं थी कि सारे देश में प्रसारित हो। प्रसारण की दृष्टि से यह फ़िल्म बनी नहीं थी। अतः बेटी की सलाह पर यह निर्णय हुआ कि इसमें बीच-बीच में अभिनेताओं और जाने-पहचाने चेहरों को ऐंकरिंग या सन्देश के लिए डाला जाय ताकि लोग अधिक आकर्षित हों, और फ़िल्म निर्माता-निर्देशक, जो हमीं लोग थे, की प्रतिष्ठा नष्ट न हो।

संयोग से फ़िल्म जगत में मेरे कई संपर्क थे। मैंने कई को फोन घुमाए। श्याम बाबू को भी फ़ोन किया। उस समय वे राज्य सभा के सदस्य हो गए थे। मैंने उनसे कहा कि आप भी किसानों के लिए कुछ सन्देश दे दें, मैं स्क्रिप्ट भेज देता हूँ। वे तैयार हो गए। मेरी बेटी मास कौम की स्नातक है। अपनी टीम के साथ वह श्याम के घर गयी। श्याम बाबू शायद जीवन में पहली बार कैमरे के पीछे नहीं बल्कि सामने बैठे थे। मेरी बेटी ने मुझे बताया कि कई बार श्याम बाबू ने कोशिश की मगर हर बार नर्वस हो कर लड़खड़ा जाते थे। अंत में उन्होंने कहा कि वे नहीं कर पाएंगे। बेटी की टीम खाली हाथ लौट आई। मैंने उन्हें फोन किया। उन्होंने क्षमा मांगी। कहा, मैं हिंदी में कॉन्फिडेंट फील नहीं करता। नहीं बोल पाया। मैंने ओम पूरी को कह दिया है, वे सारी ऐंकरिंग कर देंगे।

'But we have always been talking in Hindi, and I always found you talking confidently and fluently in Hindi!!', मैंने कहा।
'Yes, yes, but somehow I could not do it this time! Sorry!', श्याम बाबू बोले।

मैं मामला समझ गया!
बाद में ओम पूरी ने पूरा एक दिन बेटी की टीम को दिया, और लंबी ऐंकरिंग की। कोई चार्ज नहीं किया। फिर आने को आमंत्रित किया।

आखिर श्याम बाबू ने कैमरे की पीछे जिंदगी काट दी थी। कैमरे के सामने तो उन्हें वैसी ही समस्याओं का सामना करना लाजिमी था जो हर नए अभिनेता को जीवन का प्रथम या द्वितीय शॉट देते हुए करनी पड़ती हैं!

अन्ततः कई फ़िल्म अभिनेताओं के शॉट्स लगा कर यह फ़िल्म श्रृंखला दूरदर्शन को दी गयी, जिसे करोड़ों किसानों ने देश में देखा। यह बिना श्याम बाबू के सहयोग के संभव नहीं था!

पी के सिद्धार्थ
8 सितम्बर, 2016

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