मेरे प्रिय मुख्यमंत्री : नृपेन चक्रवर्ती (भाग 3)
पी के सिद्धार्थ
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नृपेन दा से मेरी पहली निकट की मुलाकात तब हुई जब मैं त्रिपुरा के साउथ डिस्ट्रिक्ट के सबरुम अनुमंडल का सबडिविज़नल पुलिस ऑफिसर नियुक्त हुआ। मुख्यमंत्री को अपने कार्यक्रम के बीच डाकबंगले में दिन का भोजन लेना था। वे स्टेट्समैन थे, केवल पॉलिटिशियन नहीं थे। अधिकारियो से, मौका मिलने पर, बिना अनुचित नजदीकी बनाये हुए, संवाद बनाये रखते थे। उन्होंने मुझे और एस डी ओ को भी अपने साथ लंच करने को बुलाया। हम लोग लंच पर बैठे तो उन्होंने मेरी प्लेट में मछली न देख कर खाना खिलाने वाले को मेरी प्लेट में मछली परोसने को कहा। मैंने उन्हें बताया कि मैं शाकाहारी हूँ, और मांस-मछली नहीं खाता। उन्होंने मुझे बड़े ताज्जुब से देखा। 'आप मांस-मछली नहीं खाते? ताज्जुब है! पुलिस में कैसे सर्वाइव करेंगे? हमलोग तो क्रांतिकारी थे। जंगलों में घूमते रहते थे। मांस-मछली नहीं खाते तो सर्वाइव कैसे करते? जंगल में हमें साधारण खाना कौन खिलाता? जो जानवर मिल जाता था, मार कर पका कर खा जाते थे!'
सबकुछ खा लेते थे! मुझे उबकाई-सी आई जिसे मैंने मुश्किल से दबाया। मैंने बड़ी हैरानी से उन्हें देखा! सी एम का आग्रह आदेश माना जाता था। मगर जैसे वे अपनी आइडियोलॉजी में पगे थे, वैसे ही मैं भी अपनी मान्यताओं पर दृढ था। मैंने अपने शाकाहार को कभी अपनी पुलिसिंग के आड़े आते नहीं देखा। मैंने उनसे क्षमा मांग ली। फिर माछ-भात और बेगुन-भाजा का लंच शुरू हुआ और उसके दौरान इलाके के बारे में दूसरी बातें होने लगीं। ध्यान रहे कि कोई बंगाली भोजन बिना 'माछ' यानि मछली और बैगन के तले हुए भाजे के बिना पूरा नहीं होता।
कुछ वर्ष गुजर गए और नृपेन दा सत्ता से बाहर हो गए। 1988 में मैं साउथ डिस्ट्रिक्ट एस पी के तौर पर कांग्रेस सरकार के अधीन नियुक्त हुआ। सी पी एम पार्टी ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ राज्य में एक बड़ा आंदोलन चलाया। मेरे जिले में एक दिन उनका एक उग्र जुलूस नृपेन दा के नेतृत्व में डी सी-एस पी कार्यालय के घेराव के लिए आया। कार्यालय परिसर के बाहर सड़क पर दो परतों में बैरिकेडिंग की गयी थी। धारा 144 लागू थी। जुलूस ने बैरिकेड की पहली परत तोड़ दी और अंतिम बैरिकेड के पास पहुँच गयी। मेरे स्पष्ट निर्देश थे क़ि फायरिंग नहीं करनी, और नृपेन दा को कोई चोट न पहुंचे, इसका ख्याल रखना। उग्र भीड़ ने अब दूसरी बैरिकेड (लोहे की पाइप और बांस का घेरा) तोड़ने के लिए जोरदार दबाव बनाया। सबसे अगली पंक्ति में नृपेन दा थे। उनके पीछे से उग्र जनसैलाब का जो दबाव बन रहा था उसके कारण नृपेन दा भीड़ और बैरिकेड के बीच पिसे जा रहे थे। बैरिकेड के इस और से पुलिस बलों का भी उतना ही दबाव भीड़ की दिशा में बन रहा था। अस्सी साल से ऊपर के वयोवृद्ध और अत्यंत बहादुर मगर अत्यंत दुबले-पतले और हल्के शरीर वाले नेता के ठीक सामने बैरिकेड के इस और मैं खुद खड़ा था, 6 फीट 3 इंच और 96 किलोग्राम वजन वाला! मैंने लक्ष्य किया कि दादा अब अपनी शारीरिक सहन शक्ति के अंतिम चरण में थे। मैंने भीड़ को चिल्ला-चिल्ला कर आगाह करने की बहुत कोशिश की कि वे पीछे हट जाएं, नहीं तो नृपेन दा का अंत हो जायेगा। मगर 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारों के बीच मेरी हर आवाज खो गयी। मैंने फिर भी लाठी चार्ज के आदेश नहीं दिए, क्योकि ऐसा करता तो लाठी के पहले शिकार नृपेन दा ही होते, और फिर उनके जीवित रहने की संभावना इस उम्र में नहीं रहती। मगर अब लाठी चार्ज के अलावा कोई विकल्प नहीं था। मैंने एक त्वरित निर्णय लिया कि लाठी चार्ज के पहले उन्हें निकाल लेने का प्रयास करना है। मैंने अपने शरीर की प्रकृतिप्रदत्त सारी क्षमता लगा कर उन्हें पकड़ा और बड़ी मशक्कत से उन्हें खींच कर भीड़ से ऊपर मुक्त आसमान में उठा लिया और बैरिकेड के इस ओर ले लिया। जवानों ने तत्काल उन्हें पकड़ा और उठा कर एम्बुलेंस की और ले गए जो तैयार खड़ी थी। डॉक्टर भी तैयार खड़े थे। उनकी प्राथमिक चिकित्सा हुई और पुलिस सुरक्षा में तत्काल दूसरे रास्ते से उन्हें अगरतला मुख्य हस्पताल भेज दिया गया।
इस बीच नृपेन दा के सुरक्षित निकाले जाते ही लाठी चार्ज के आदेश दे दिए गए। लाठी चार्ज के बाद भीड़ तितर-बितर हो गयी। कुछ दूर से भीड़ ने पथराव शुरू कर दिया। आंसू गैस के गोले छूटने लगे। कई लोग गंभीर रूप से घायल हुए, जिनमे कई पुलिस के जवान भी थे। मैं पत्थरों की बरसात के बीच भी संयोग से अनाहत रहा, अपनी और आते पत्थरों के निशाने से शरीर को हट-हटा कर।
प्रेस को बस नृपेन दा के एम्बुलेंस में अगरतला भेजे जाने की एक झलकी देखने-सुनने को मिली। अपराह्न का समय हो गया था। न्यूज़ कम्पोज़ करने में ज्यादा समय नहीं बच रहा था। उस वक्त सम्प्रेषण के साधन त्रिपुरा में विकसित नहीं थे। मोबाइल नहीं थी। प्रेस रिपोर्ट मोटर साईकिल से लेकर रिपोर्टें अगरतला ले जाते थे, या फोन की एसटीडी लाइन ठीक रही तो फ़ोन से रिपोर्टें लिखाई जाती थीं। अतः प्रेस रिपोर्टर्स ने वही किया जो उस समय 'वाज़िब' था। अनुमान से सनसनीखेज खबर बनायी। अगले दिन अख़बारों के मुख पृष्ठ पर सबसे ऊपर यही खबर थी, जिसका सार द टेलीग्राफ की इस हेडलाइन से पकड़ा जा सकता है : "Nripen critically injured in police lathicharge, hospitalised."
चलता है! क्योंकि आखिर समाचार को सेलेबल भी तो होना है! असली सच्चाई तो मैं या नृपेन बाबू ही जानते थे!
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