भोजपुरी सभ्यता का अद्भुत स्वाद : छपरा में मेरा दूसरा दिन!
पी के सिद्धार्थ
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(भोजपुरी भाषियों को यह पोस्ट नहीं पढ़ने की सलाह दी जाती है। अगर पढ़ें तो कृपया सड़क जाम न करें : यह एक अच्छी भावना से लिखा गया पोस्ट है।)
छपरा आने का मेरा कार्यक्रम पहले से तय था। आसाम के कोकराझार जिले से साइकिल चला कर 22 आसामी युवक और तीन नवयुवतियां, जिनमें सभी समुदायों के लोग शामिल हुए हैं, कश्मीर जा रहे हैं, मुहब्बत का पैगाम ले कर, कश्मीर के लोगों के आहत मन पर मलहम लगाने। । बिहार से गुजरते हुए चार जगहों पर उनका स्वागत करने के लिए बिहार सर्वोदय मंडल के सचिव मनोहर मानव ने कार्यक्रम आयोजित कर रखे हैं जिसमें मुझे भी शरीक होने का आमंत्रण था। मैंने इस पवित्र काम में सहयोग देना स्वीकार कर मनोहर को वचन दे दिया था कि उन बहादुर युवाओं का मनोबल बढ़ाने जरूर आऊंगा। मगर छपरा के लिए प्रस्थान करने के पूर्व रांची में ही जबरदस्त सर्दी-खांसी और तेज वायरल बुखार हो गया। मगर वचन दे चुका था, इसलिए निर्णय किया कि जाऊंगा। ट्रेन में 16 को अकेला ही बैठा और 17 तारीख को छपरा पहुँच गया। सर्किट हाउस में ठहरने की व्यवस्था थी। मनोहर मानव पहले डॉ विजया रानी सिंह और उनके पति डॉक्टर राजीव सिंह से दिखा कर मुझे स्टेशन से सर्किट हॉउस ले आये। सर्किट हाउस पहुँच कर मैं बदहवास पड़ गया। डॉ राजीव ने फीज़ भी नहीं ली और सारी दवाइयों की व्यवस्था भी कर दी।
मेरे 17 तारीख़ के सारे कार्यकम रद्द करने पड़े। मैंने 18 के कार्यक्रम भी रद्द करने का निर्णय मनोहर मानव को बता दिया, क्योंकि अभी आगे बड़ी सारी यात्राएं करनी थीं, और उनके लिए तबीयत को संभाल कर रखना था।
अगले दिन सुबह साढ़े आठ बजे तक बेसुध सोता रहा। शरीर हिल नहीं रहा था। मगर साढ़े आठ बजे मानव ने दरवाजा खटखटाया और आवाज़ लगायी तो बहुत अनिच्छा से उठ कर दरवाजा खोला।
मनोहर मानव ने बैठ कर धीरे-धीरे मुझे संकेत देना शुरू किया कि यहाँ से एक-डेढ़ घंटे की दूरी पर भेलडीह में 10 बजे के कार्यक्रम में मेरे शामिल होने से युवाओं का मनोबल बहुत बढ़ेगा।
मैं इस अमानवीय आग्रह पर हैरान रह गया! मुझे पता था की मनोहर ने जे पी की सार्वजनिक अपील पर और स्वामी अग्निवेश के समर्थन से अपना जातिगत सरनेम हटा कर उसकी जगह 'मानव' रख लिया था। यह बात मुझे अच्छी लगी, क्योंकि मैंने भी अपना जातिगत नाम हटा कर बहुत पहले 'सिद्धार्थ' रख लिया था। मगर मनोहर मानव का आग्रह मुझे उस क्षण तो मानवीय नहीं लगा। 'इन सज्जन को अपना नाम मनोहर 'दानव' या मनोहर 'अमानव' रखना था या कुछ और, मगर 'मानव' तो कतई नहीं', ऐसा तेज बुखार की स्थिति में मेरे मन में विचार आया।
फिर भी मनोहर चूँकि बहुत युवा हैं, इसलिए, उन्हें निराश करना मैंने उचित नहीं समझा। फिर मुझे वह पुराना सिद्धांत भी याद आया : 'माइंड ओवर मैटर!' मैं शरीर से संघर्ष करता हुआ उठा और स्नान कर जाने को तैयार हुआ। इसी बीच जे पी विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के विभागाध्यक्ष प्रो लालबाबू यादव आ गए, जिन्हें मनोहर ने भावनात्मक दबाव बना कर अपना षडयंत्र सफल होता देख, मुझे अपनी कार में पिक-अप करने के लिए बुला लिया था। रास्ते में प्रोफ़ेसर साहब से जो चर्चा हुई उससे पता चला कि वे भारतीय प्राध्यापकों की उस विलुप्त हो चुकी प्रजाति के एक जीवित सदस्य हैं जो आज भी पढ़ते- लिखते हैं और अपने ज्ञान को अद्यतन रखते हैं।
रास्ते में प्रोफ़ेसर साहब ने एक 'प्रसिद्ध' दूकान में कुछ 'लिट्टी' पैक करा ली और आगे बढे। यह बता दूँ कि जैसे एक बंगाली को 'माछ-भात' प्यारा होता है, वैसे ही भोजपुरी लोगों को लिट्टी-चोखा। बंगाली स्वर्ग भी जाने से मना कर दें यदि उन्हें पता चले कि स्वर्ग में उन्हें 'माछेर झोर' नहीं मिलेगा। लालू जी भी भोजपुरी-भाषी हैं, और छपरा के ही रहने वाले हैं, जिन्होंने अपने भोजपुरी अंदाज़ में हिंदी और अंग्रेजी बोल कर दुनिया भर में भोजपुरी भाषियों का नाम रोशन किया हैं। अपनी भोजपुरिया अदाओं से लालू जी ने भारतीय संसद के साथ-साथ पूरे देश को जितना हंसाया है, उतना किसी भी हास्य कवि ने नहीं। प्रोफेसर साहब ने बताया कि जब लालू जी रेल मंत्री थे तो उनकी ट्रेन में उनके साथ लिट्टी-चोखा की सलून चला करती थी। लालू जी के कारण ही आपको आज नयी दिल्ली स्टेशन पर भी लिट्टी-चोखा की दूकान मिल जायेगी।
जिन्होंने 'लिट्टी' नहीं खाई और नहीं देखी, वे इसकी महिमा और गरिमा नहीं समझ सकते। इसे आप राजस्थानी 'बाटी' न समझ बैठें, जिसमें दाल भरी रहती है। लिट्टी में आटे की खोल में सत्तू (भुने हुए चने का महीन पाउडर) भरा रहता है। इसके आकार और बम के आकार में कोई खास फर्क नहीं होता। कई भोजपुरी युवक जब पहली बार विदेश पढ़ने जा रहे होते हैं तो अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर उन्हें विस्तृत पूछ-ताछ के लिए तब डिटेन कर लिया जाता है जब एक्सरे मशीन में उनके सूटकेस में उनकी 'माई' की प्यार से दी गयी लिट्टियां बम का भ्रम उत्पन्न कर देती हैं।
इंग्लैंड में मैने कई अत्यंत सुशिक्षित भोजपुरियों को शैम्पेन में लिट्टी डुबो कर खाते सुना है, जब कि साधारणतः लिट्टी को देसी घी में डुबो कर खाने की परंपरा है। उनमें मेरे साथ दुमका जिले में कलक्टर के रूप में काम कर चुके और हमेशा टाई और थ्री-पीस सूट में रहने वाले, और थ्री-पीस सूट ही अक्सर पहन कर सोने वाले एक सज्जन भी थे। सच तो यह है कि लिट्टी-चोखा मेरी भी कमजोरी है, यह छुपा कर नहीं रह सका। इंग्लैण्ड में हमारी ट्रेनिंग अकैडमी के किचन में कुछ प्रोफेशनल शेफ मित्रों को हमारी श्रीमती जी ने उनके आग्रह पर कई भारतीय पकवान सिखाये। उनमे एक लिट्टी भी थी। इसे देख कर एक शेफ की लगभग चीख निकल गयी - 'ओ माई गॉड! इट लुक्स लाइक अ बॉम्ब!'
इंग्लैण्ड से जब हम फ़्रांस घूमने निकले तो इसी किचन में लिट्टियां पका कर पैरिस ले गए, और वहां एफिल टावर के टॉप पर बैठ कर लिट्टियां खाई थीं, यह अभी भी याद है।
चलिए अब लिट्टी-चोखा से आगे बढ़ते हैं।
भेलडीह के कॉलेज में पहुँच कर, जहाँ मोहब्बत का पैगाम कश्मीर ले जाने वालों का स्वागत होना था, मैं प्राचार्य के रूम में ले जाया जाता हूँ। मेरे साथ प्रोफ़ेसर लाल बाबू भी पीछे से दाखिल होते हैं। मगर तब तक अगली पंक्ति की कुर्सियां भर चुकी होती हैं। एक सेवानिवृत्त बुज़ुर्ग स्कूल प्रधानाध्यापक अम्बिका बाबू उठ कर खड़े हो जाते हैं, और प्रोफ़ेसर साहब को कई बार आदर से अनुरोध करते हैं कि वे उनकी कुर्सी ग्रहण कर लें। लेकिन प्रोफ़ेसर साहब उनकी कुर्सी कई बार आदरपूर्वक आग्रह करने पर भी ग्रहण नहीं करते, तो पूर्व प्रधानाध्यापक महोदय कहते हैं : 'अब ना मानब रउआ, त(अ) मार-पीट करे के पड़ी।' (अगर नहीं मानेंगे तो मार-पीट करनी पड़ेगी!') स्नेह और आत्मीयता का यह अतिरेक देख कर प्रोफ़ेसर साहब के चेहरे पर सच्ची प्रसन्नता दिखती है, और वे तुरंत कुर्सी ग्रहण कर लेते हैं। मैं सोचता हूँ, 'वाह, आदर और स्नेह व्यक्त करने की क्या अनोखी तहजीब है! जवाब नहीं!
वाह रे भोजपुर!' ध्यान रहे कि छपरा-सीवान-बलिया आदि 'भोजपुर' नहीं कहे जाते, हालाँकि बोली और तहजीब में ये जिले मेरे जिले, जिसे लोकप्रिय तौर पर 'आरा जिला' या भोजपुर कहते रहे हैं, की ही प्रतिकृति माने जा सकते हैं। लेकिन ये जिले मेरे जिले के पचास प्रतिशत भी नहीं। अगर मूल भोजपुर क्षेत्र या आरा जिला की तहजीब देखेंगे तो दांतों तले उंगलियां चबाने लगेंगे। वहां की सीधी और लठमार भाषा का मुकाबला सिर्फ हरयाणा के जाट ही कर सकते हैं। फर्क है तो सिर्फ इतना कि भोजपुरी भाषा में लठमारपन के अलावा एक अभूतपूर्व आतंरिक मृदुलता और आत्मीयता भी हुआ करती है। छपरा-सीवान-गोपालगंज-बलिया आदि 'सॉफ्टकोर' भोजपुरी हैं, मैं गर्व के साथ कह सकता हूँ कि मेरा जिला 'हार्डकोर' माना जाता है। बहुत सारे लोग, जिनमें मेरी श्रीमतीजी भी शामिल हैं, मेरे जिले के पीछे खामख्वाह हाथ धो कर पड़े रहते हैं। बस कोई पॉइंट उन्हें मिलना चाहिए।
लौटते हुए प्रोफेसर साहब कार में लिट्टियों का झोला खुलवाते हैं और मुझे एक लिट्टी निकाल कर ग्रहण करने का अनुरोध करते हैं।
मुझे अपनी श्रीमतीजी की पिछले 30-35 वर्षों में दी गयी बिना सिर-पैर की ट्रेनिंग याद आती है, जैसे, 'कभी हाथ में यों ही ले कर खाना नहीं खाना चाहिए, हमेशा प्लेट में खाएं, या रुपये यो ही किसी को बेतन या गिफ्ट के तौर पर न दें, हमेशा लिफाफे में दें', आदि, आदि। मैं कार के अंदर और बाहर चुपके से देखता हूँ। 'कहीं श्रीमती जी अपने सूक्ष्म शरीर में मेरी निगरानी में लगी हुई तो नहीं!
आखिर मुझे रियर ग्लास में उनका नकारात्मक चेहरा दिख ही जाता है! मैं लिट्टी लेने से मना कर देता हूँ। 'प्रोफ़ेसर साहब, अभी आधे घंटे में सर्किट हाउस में पहुँच कर प्लेट में लिट्टी खाते हैं!'
'नहीं, महाराज! खाइं ना रउआ! हाथे में खाइं!'
अब मैं क्या करूँ! एक तरफ पत्नी की नसीहत दूसरी और एक भोजपुरिया मित्र का अनुरोध (आदेश)। भोजपुरियों के पास हर संकट का एक ही त्वरित निदान होता है : हनुमान चालीसा। यहाँ बच्चे से लेकर बूढ़े तक को a b c d याद हो न हो, हनुमानचालीसा जरूर कंठस्थ रहता है। भोजपूरी होने के नाते मुझे भी याद है। मैं मन-ही-मन हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू करता हूँ, और ये लीजिये! मेरी श्रीमतीजी की छवि कार के रियर ग्लास से गायब हो जाती है। संकटमोचन ने संकट का निदान कर दिया! मैं अब थोड़े इत्मीनान की सांस ले कर बिना प्लेट का प्रयोग किये हाथ में लेकर लिट्टी खाने लगता हूँ। जाहिर है, कुछ तो कार में नीचे सत्तू के टुकड़े गिरेंगे ही! लेकिन मैं क्या कर सकता हूँ! एक और पत्नी की 'स्वच्छ घर और स्वच्छ गाड़ी' का नारा, दूसरी और मोदी जी की स्वच्छ भारत की अपील, और इधर गन्दगी लगाने का हमारे भोजपुरिया मित्र का स्नेहिल आदेश। कार के मालिक की अनुमति है, तो मुझे क्या करना! देखा जायेगा! मोदी से तो निबट लूंगा मगर श्रीमती जी से कैसे निबाटूँगा अगर उन्हें खबर लग गयी तो? मोदी जी को लोग तानाशाह कहते हैं, मगर वे मेरी गृहस्वामिनी के समक्ष चार आना भी नहीं! मुझे रुसी साहित्यकार मिखाइल शोलोखोव के नोबेल पुरस्कार से नवाजे गए उपन्यास 'ऐंड क्वायट फ्लोज़ द डॉन' के कुछ मजदूर किरदारों का संवाद याद आता है : 'ये 'बड़े लोग हमारी शिकायत करते हैं कि हम असभ्य हैं, हम हाथ-मुह बेसिन में नहीं धोते! उन बेवकूफों को यह पता नहीं कि हम खेतों में काम करते हैं। मुह-हाथ साफ़ करने के लिए साथ में बेसिन ले कर तो नहीं घूम-फिर सकते!' शोलोखोव की बात याद कर मैं सोचता हूँ : 'आखिर हम लोग भी तो मजदूरों जैसे हालात में ही काम करते हैं। साथ में प्लेट-कटोरा ले कर तो नहीं घूम सकते! चार बज गए हैं; भूख लगी है। प्लेट के लिए प्रतीक्षा क्यों करें?'
प्रेम से लिट्टियां खाते हुए हम छपरा शहर पहुंचते हैं। मेरी एक दवा रांची छूट गयी है, सो एक मेडिकल दूकान में गाडी रुकवा कर खरीदने उतरता हूँ। एक पत्ती दवा की लेकर कीमत चुकाने के लिए 100 रुपये काउंटर पर रखता हूँ। पीछे से एक हाथ बढ़ कर वह रूपया वापस खींच कर मेरी जेब में डाल देता है। मैं मुड़ कर पीछे देखता हूँ तो प्रोफ़ेसर लालबाबू हैं।
'आप पैसे नहीं देंगे, आप हमारे अतिथि हैं। और हम पैसे थोड़े ही दे रहे हैं! इसे हमारा स्नेह समझिये!'
मैं अभी कुछ ही देर पहले भोजपुरी तहजीब देख चूका हूँ। आदरपूर्वक किये गए भोजपुरियों के अनुरोध को नहीं मानने का क्या हश्र होता है, यह जान गया हूँ। अतः तत्काल प्रोफ़ेसर लाल बाबू का स्नेहसिक्त अनुरोध मान लेता हूँ।
फिर हम सर्किट हाउस पहुंचते हैं। चाय पिला कर लाल बाबू जी को विदा करता हूँ।
एक घंटे आराम करता हूँ, क्योंकि थकान से बुखार फिर तेज हो गया है। इसी बीच मेरी श्रीमती जी के एक मौसेरे भाई रत्नम जी, जो छपरा निवासी हैं, मेरी तबियत की खबर पा कर पधारते हैं। थोड़ी गपशप पड़े-पड़े आँखें बंद कर ही करता हूँ। वे केयर टेकर को एक तरफ ले जा कर कुछ बातें करते हैं। जाने से पहले मुझे बता जाते हैं कि आप सर्किट हाउस में ठहरने-खाने का कोई भुगतान नहीं करेंगे। मैंने कह दिया है, मैं करूँगा!'
मैं उनकी ओर कातर निगाहों से देखता हूँ। भोजपुरियों के अनुरोध को न मानाने के परिणाम स्मृति में ताजा हैं। सो मैं सहमति दे देता हूँ।
'कमाल है! ऐसी जगह तो आज तक नहीं देखि जहाँ अतिथि के लिए चिकित्सा, रहना, खाना, घूमना- फिरना, दवाइयाँ सभी कुछ मुफ़्त उपलब्ध हो! ऐसा हो तो फिर तो समाज-सेवा के लिए देश भर में घूमना-फिरना बड़ा सुकर हो जाये।
मुझे बर्ट्रेंड रसेल द्वारा 'ऑन एजुकेशन' में लिखी वे पंक्तिया याद आती हैं : ब्रिटिश शिक्षा-पद्धति आदमी पर ऊपर के पॉलिश की परत बिठाने में अधिक रूचि लेती है: भीतर के चरित्र को परिष्कृत करने पर कम।' हिंदी शब्दों में कहूँ तो रसेल के अनुसार ब्रिटेन, अमेरिका या यूरोप में 'सभ्यता' अधिक सिखाई जाती है, 'संस्कृति' कम। 'सभ्यता' एक बाहरी चीज़ होती है, 'संस्कृति' भीतरी।
भोजपुरी भाषी शायद बोलने और व्यवहार करने में उतने 'सोफिस्टिकेटेड' नहीं होते, लेकिन अंदर से सहज और स्नेहिल होते हैं। उनमें एक विरल चीज़ होती है 'आत्मीयता', जो आज भारत के शहरों में एक दुर्लभ वस्तु है। यूरोप और अमेरिका में तो आत्मीयता नाम की कोई चीज़ ढूंढे नहीं मिलती।
मैं निर्भीक हो कर अपनी श्रीमती जी पर हास्य-व्यंग्य की टिप्पणियां कर लेता हूँ, क्योंकि वे मेरी लिखी कोई पोस्ट या किताब नहीं पढ़तीं। उनका मानना है कि मैं एक बहुत ही बोरिंग लेखक हूँ, और मेरी बातें 'सर के ऊपर से निकल जाती हैं।' अगर यह पोस्ट उन्होंने कहीं पढ़ लिया तो आने वाले कुछ महीनो तक भोजपुरी (अ)सभ्यता और मेरे जिले पर उनका अपना हास्य-व्यंग्य चलता रहेगा। हालाँकि मैंने उन्हें कई बार कहा है कि जो कहना है मुझे कह लो, मेरे जिले तक न पहुँचो। मगर कौन सुनता है! पता नहीं क्यों, सभी लोग सिर्फ लालू जी और भोजपुरियों के पीछे ही खामखाह पड़े रहते हैं!
पी के सिद्धार्थ
18 सितम्बर, 2016