Sunday, 18 September 2016

Bhojpuri civilization भोजपुरी सभ्यता

भोजपुरी सभ्यता का अद्भुत स्वाद : छपरा में मेरा दूसरा दिन!

पी के सिद्धार्थ
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(भोजपुरी भाषियों को यह पोस्ट नहीं पढ़ने की सलाह दी जाती है। अगर पढ़ें तो कृपया सड़क जाम न करें : यह एक अच्छी भावना से लिखा गया पोस्ट है।)

छपरा आने का मेरा कार्यक्रम पहले से तय था। आसाम के कोकराझार जिले से साइकिल चला कर 22 आसामी युवक और तीन नवयुवतियां, जिनमें  सभी समुदायों के लोग शामिल हुए हैं, कश्मीर जा रहे हैं, मुहब्बत का पैगाम ले कर, कश्मीर के लोगों के आहत मन पर मलहम लगाने। । बिहार से गुजरते हुए चार जगहों पर उनका स्वागत करने के लिए बिहार सर्वोदय मंडल के सचिव मनोहर मानव ने कार्यक्रम आयोजित कर रखे हैं जिसमें मुझे भी शरीक होने का आमंत्रण था। मैंने इस पवित्र काम में सहयोग देना स्वीकार कर मनोहर को वचन दे दिया था कि उन बहादुर युवाओं का मनोबल बढ़ाने जरूर आऊंगा। मगर छपरा के लिए प्रस्थान करने के पूर्व रांची में ही जबरदस्त सर्दी-खांसी और तेज वायरल बुखार हो गया। मगर वचन दे चुका था, इसलिए निर्णय किया कि जाऊंगा। ट्रेन में 16 को अकेला ही बैठा और 17 तारीख को छपरा पहुँच गया। सर्किट हाउस में ठहरने की व्यवस्था थी। मनोहर मानव पहले डॉ विजया रानी सिंह और उनके पति डॉक्टर राजीव सिंह से दिखा कर मुझे स्टेशन से सर्किट हॉउस ले आये। सर्किट हाउस पहुँच कर मैं  बदहवास पड़ गया। डॉ राजीव ने फीज़ भी नहीं ली और सारी दवाइयों की व्यवस्था भी कर दी।

मेरे 17 तारीख़ के सारे कार्यकम रद्द करने पड़े। मैंने 18 के कार्यक्रम भी रद्द करने का निर्णय मनोहर मानव को बता दिया, क्योंकि अभी आगे बड़ी सारी यात्राएं करनी थीं, और उनके लिए तबीयत को संभाल कर रखना था।

अगले दिन सुबह साढ़े आठ बजे तक बेसुध सोता रहा। शरीर हिल नहीं रहा था। मगर साढ़े आठ बजे मानव ने दरवाजा खटखटाया और आवाज़ लगायी तो बहुत अनिच्छा से उठ कर दरवाजा खोला।

मनोहर मानव ने बैठ कर धीरे-धीरे मुझे संकेत देना शुरू किया कि यहाँ से एक-डेढ़ घंटे की दूरी पर भेलडीह में 10 बजे के कार्यक्रम में मेरे शामिल होने से युवाओं का मनोबल बहुत बढ़ेगा।

मैं इस अमानवीय आग्रह पर हैरान रह गया! मुझे पता था की मनोहर ने जे पी की सार्वजनिक अपील पर और स्वामी अग्निवेश के समर्थन से अपना जातिगत सरनेम हटा कर उसकी जगह 'मानव' रख लिया था। यह बात मुझे अच्छी लगी, क्योंकि मैंने भी अपना जातिगत नाम हटा कर बहुत पहले 'सिद्धार्थ' रख लिया था। मगर मनोहर मानव का आग्रह मुझे उस क्षण तो मानवीय नहीं लगा। 'इन सज्जन को अपना नाम मनोहर 'दानव' या  मनोहर 'अमानव' रखना था या कुछ और, मगर 'मानव' तो कतई नहीं', ऐसा तेज बुखार की स्थिति में मेरे मन में विचार आया।

फिर भी मनोहर चूँकि बहुत युवा हैं, इसलिए, उन्हें निराश करना मैंने उचित नहीं समझा। फिर मुझे वह पुराना सिद्धांत भी याद आया : 'माइंड ओवर मैटर!' मैं शरीर से संघर्ष करता हुआ उठा और स्नान कर जाने को तैयार हुआ। इसी बीच जे पी विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के विभागाध्यक्ष प्रो लालबाबू यादव आ गए, जिन्हें मनोहर ने भावनात्मक दबाव बना कर अपना षडयंत्र सफल होता देख, मुझे अपनी कार में पिक-अप करने के लिए बुला लिया था। रास्ते में प्रोफ़ेसर साहब से जो चर्चा हुई उससे पता चला कि वे भारतीय प्राध्यापकों की उस विलुप्त हो चुकी प्रजाति के एक जीवित सदस्य हैं जो आज भी पढ़ते- लिखते हैं और अपने ज्ञान को अद्यतन रखते हैं।

रास्ते में प्रोफ़ेसर साहब ने एक 'प्रसिद्ध' दूकान में कुछ 'लिट्टी' पैक करा ली और आगे बढे। यह बता दूँ कि जैसे एक बंगाली को 'माछ-भात' प्यारा होता है, वैसे ही भोजपुरी लोगों को लिट्टी-चोखा। बंगाली स्वर्ग भी जाने से मना कर दें यदि उन्हें पता चले कि स्वर्ग में उन्हें 'माछेर झोर' नहीं मिलेगा। लालू जी भी भोजपुरी-भाषी हैं, और छपरा के ही रहने वाले हैं, जिन्होंने अपने भोजपुरी अंदाज़ में हिंदी और अंग्रेजी बोल कर दुनिया भर में भोजपुरी भाषियों का नाम रोशन किया हैं। अपनी भोजपुरिया अदाओं से लालू जी ने भारतीय संसद के साथ-साथ पूरे देश को जितना हंसाया है, उतना किसी भी हास्य कवि ने नहीं। प्रोफेसर साहब ने बताया कि जब लालू जी रेल मंत्री थे तो उनकी ट्रेन में उनके साथ लिट्टी-चोखा की सलून चला करती थी। लालू जी के कारण ही आपको आज नयी दिल्ली स्टेशन पर भी लिट्टी-चोखा की दूकान मिल जायेगी।

जिन्होंने 'लिट्टी' नहीं खाई और नहीं देखी,  वे इसकी महिमा और गरिमा नहीं समझ सकते। इसे आप राजस्थानी 'बाटी' न समझ बैठें, जिसमें  दाल भरी रहती है। लिट्टी में आटे की खोल में सत्तू (भुने हुए चने का महीन पाउडर) भरा रहता है। इसके आकार और बम के आकार में कोई खास फर्क नहीं होता। कई भोजपुरी युवक जब पहली बार विदेश पढ़ने जा रहे होते हैं तो अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर उन्हें विस्तृत पूछ-ताछ के लिए तब डिटेन कर लिया जाता है जब एक्सरे मशीन में उनके सूटकेस में उनकी 'माई' की प्यार से दी गयी लिट्टियां बम का भ्रम उत्पन्न कर देती हैं।

इंग्लैंड में मैने कई अत्यंत सुशिक्षित भोजपुरियों को शैम्पेन में लिट्टी डुबो कर खाते सुना है, जब कि साधारणतः लिट्टी को देसी घी में डुबो कर खाने की परंपरा है। उनमें मेरे साथ दुमका जिले में कलक्टर के रूप में काम कर चुके और हमेशा टाई और थ्री-पीस सूट में रहने वाले, और थ्री-पीस सूट ही अक्सर पहन कर सोने वाले एक सज्जन भी थे। सच तो यह है कि लिट्टी-चोखा मेरी भी कमजोरी है, यह छुपा कर नहीं रह सका। इंग्लैण्ड में हमारी ट्रेनिंग अकैडमी के किचन में कुछ प्रोफेशनल शेफ मित्रों को हमारी श्रीमती जी ने उनके आग्रह पर कई भारतीय पकवान सिखाये। उनमे एक लिट्टी भी थी। इसे देख कर एक शेफ की लगभग चीख निकल गयी - 'ओ माई गॉड! इट लुक्स लाइक अ बॉम्ब!'

इंग्लैण्ड से जब हम फ़्रांस घूमने निकले तो इसी किचन में लिट्टियां पका कर पैरिस ले गए, और वहां एफिल टावर के टॉप पर बैठ कर लिट्टियां खाई थीं, यह अभी भी याद है।

चलिए अब लिट्टी-चोखा से आगे बढ़ते हैं।

भेलडीह के कॉलेज में पहुँच कर, जहाँ मोहब्बत का पैगाम कश्मीर ले जाने वालों का स्वागत होना था, मैं प्राचार्य के रूम में ले जाया जाता हूँ। मेरे साथ प्रोफ़ेसर लाल बाबू भी पीछे से दाखिल होते हैं। मगर तब तक अगली पंक्ति की कुर्सियां भर चुकी होती हैं। एक सेवानिवृत्त बुज़ुर्ग स्कूल प्रधानाध्यापक अम्बिका बाबू उठ कर खड़े हो जाते हैं, और प्रोफ़ेसर साहब को कई बार आदर से अनुरोध करते हैं कि वे उनकी कुर्सी ग्रहण कर लें। लेकिन  प्रोफ़ेसर साहब उनकी कुर्सी कई बार आदरपूर्वक आग्रह करने पर भी ग्रहण नहीं करते, तो पूर्व प्रधानाध्यापक महोदय कहते  हैं : 'अब ना मानब रउआ, त(अ) मार-पीट करे के पड़ी।' (अगर नहीं मानेंगे तो मार-पीट करनी पड़ेगी!') स्नेह और आत्मीयता का यह अतिरेक देख कर प्रोफ़ेसर साहब के चेहरे पर सच्ची प्रसन्नता दिखती है, और वे तुरंत कुर्सी ग्रहण कर लेते हैं। मैं  सोचता हूँ, 'वाह, आदर और स्नेह व्यक्त करने की क्या अनोखी तहजीब है! जवाब नहीं!
वाह रे भोजपुर!' ध्यान रहे कि छपरा-सीवान-बलिया आदि 'भोजपुर' नहीं कहे जाते, हालाँकि बोली और तहजीब में ये जिले मेरे जिले, जिसे लोकप्रिय तौर पर 'आरा जिला' या भोजपुर कहते रहे हैं, की ही प्रतिकृति माने जा सकते  हैं। लेकिन ये जिले मेरे जिले के पचास प्रतिशत भी नहीं। अगर मूल भोजपुर क्षेत्र या आरा जिला की तहजीब देखेंगे तो दांतों तले उंगलियां चबाने लगेंगे। वहां की सीधी और लठमार भाषा का मुकाबला सिर्फ हरयाणा के जाट ही कर सकते हैं। फर्क है तो सिर्फ इतना कि भोजपुरी भाषा में लठमारपन के अलावा एक अभूतपूर्व  आतंरिक मृदुलता और आत्मीयता भी हुआ करती है।  छपरा-सीवान-गोपालगंज-बलिया आदि 'सॉफ्टकोर' भोजपुरी हैं, मैं गर्व के साथ कह सकता हूँ कि मेरा जिला 'हार्डकोर' माना जाता है। बहुत सारे लोग, जिनमें मेरी श्रीमतीजी भी शामिल हैं, मेरे जिले के पीछे खामख्वाह हाथ धो कर पड़े रहते हैं। बस कोई पॉइंट उन्हें मिलना चाहिए।

लौटते हुए प्रोफेसर साहब कार में लिट्टियों का झोला खुलवाते हैं और मुझे एक लिट्टी निकाल कर ग्रहण करने का अनुरोध करते हैं।

मुझे अपनी श्रीमतीजी की पिछले 30-35 वर्षों में दी गयी बिना सिर-पैर की ट्रेनिंग याद आती है, जैसे, 'कभी हाथ में यों ही ले कर खाना नहीं खाना चाहिए, हमेशा प्लेट में खाएं, या रुपये यो ही किसी को बेतन या गिफ्ट के तौर पर न दें, हमेशा लिफाफे में दें', आदि, आदि।  मैं कार के अंदर और बाहर चुपके से देखता हूँ। 'कहीं श्रीमती जी अपने सूक्ष्म शरीर में मेरी निगरानी में लगी हुई तो नहीं!
आखिर मुझे रियर ग्लास में उनका नकारात्मक चेहरा दिख ही जाता है! मैं लिट्टी लेने से मना कर देता हूँ। 'प्रोफ़ेसर साहब, अभी आधे घंटे में सर्किट हाउस में पहुँच कर प्लेट में लिट्टी खाते हैं!'

'नहीं, महाराज! खाइं ना रउआ! हाथे में खाइं!'

अब मैं क्या करूँ! एक तरफ पत्नी की नसीहत दूसरी और एक भोजपुरिया मित्र का अनुरोध (आदेश)।  भोजपुरियों के पास हर संकट का एक ही त्वरित निदान होता है : हनुमान चालीसा। यहाँ बच्चे से लेकर बूढ़े तक को a b c d याद हो न हो, हनुमानचालीसा जरूर कंठस्थ रहता है। भोजपूरी होने के नाते मुझे भी याद है। मैं मन-ही-मन हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू करता हूँ, और ये लीजिये! मेरी श्रीमतीजी की छवि कार के रियर ग्लास से गायब हो जाती है। संकटमोचन ने संकट का निदान कर दिया! मैं अब थोड़े इत्मीनान की सांस ले कर बिना प्लेट का प्रयोग किये हाथ में लेकर लिट्टी खाने लगता हूँ। जाहिर है, कुछ तो कार में नीचे सत्तू के टुकड़े गिरेंगे ही! लेकिन मैं क्या कर सकता हूँ! एक और पत्नी की 'स्वच्छ घर और स्वच्छ गाड़ी' का नारा, दूसरी और मोदी जी की  स्वच्छ भारत की अपील, और इधर गन्दगी लगाने का हमारे भोजपुरिया मित्र का स्नेहिल आदेश। कार के मालिक की अनुमति है, तो मुझे क्या करना! देखा जायेगा! मोदी से तो निबट लूंगा मगर श्रीमती जी से कैसे निबाटूँगा अगर उन्हें खबर लग गयी तो? मोदी जी को लोग तानाशाह कहते हैं, मगर वे मेरी गृहस्वामिनी के समक्ष चार आना भी नहीं! मुझे रुसी साहित्यकार मिखाइल शोलोखोव के नोबेल पुरस्कार से नवाजे गए उपन्यास 'ऐंड क्वायट  फ्लोज़ द डॉन' के कुछ मजदूर किरदारों का संवाद याद आता है : 'ये 'बड़े लोग हमारी शिकायत करते हैं कि हम असभ्य हैं, हम हाथ-मुह बेसिन में नहीं धोते! उन बेवकूफों को यह पता नहीं कि हम खेतों में काम करते हैं। मुह-हाथ साफ़ करने के लिए साथ में बेसिन ले कर तो नहीं घूम-फिर सकते!' शोलोखोव की बात याद कर मैं सोचता हूँ : 'आखिर हम लोग भी तो मजदूरों जैसे हालात में ही काम करते हैं। साथ में प्लेट-कटोरा ले कर तो नहीं घूम सकते! चार बज गए हैं; भूख लगी है। प्लेट के लिए प्रतीक्षा क्यों करें?'

प्रेम से लिट्टियां खाते हुए हम छपरा शहर पहुंचते हैं। मेरी एक दवा रांची छूट गयी है, सो एक मेडिकल दूकान में गाडी रुकवा कर खरीदने उतरता हूँ। एक पत्ती दवा की लेकर कीमत चुकाने के लिए 100 रुपये काउंटर पर रखता हूँ। पीछे से एक हाथ बढ़ कर वह रूपया वापस खींच कर मेरी जेब में डाल देता है। मैं मुड़ कर पीछे देखता हूँ तो प्रोफ़ेसर लालबाबू हैं।
'आप पैसे नहीं देंगे, आप हमारे अतिथि हैं। और हम पैसे थोड़े ही दे रहे हैं! इसे हमारा स्नेह समझिये!'

मैं अभी कुछ ही देर पहले भोजपुरी तहजीब देख चूका हूँ। आदरपूर्वक किये गए भोजपुरियों के अनुरोध को नहीं मानने का क्या हश्र होता है, यह  जान गया हूँ। अतः तत्काल प्रोफ़ेसर लाल बाबू का स्नेहसिक्त अनुरोध मान लेता हूँ।

फिर हम सर्किट हाउस पहुंचते हैं। चाय पिला कर लाल बाबू जी को विदा करता हूँ।

एक घंटे आराम करता हूँ, क्योंकि थकान से बुखार फिर तेज हो गया है। इसी बीच मेरी श्रीमती जी के एक मौसेरे भाई रत्नम जी, जो छपरा निवासी हैं, मेरी तबियत की खबर पा कर  पधारते हैं। थोड़ी गपशप पड़े-पड़े आँखें बंद कर ही करता हूँ।  वे केयर टेकर को एक तरफ ले जा कर कुछ बातें करते हैं। जाने से पहले मुझे बता जाते हैं कि आप सर्किट हाउस में ठहरने-खाने का कोई भुगतान नहीं करेंगे। मैंने कह दिया है, मैं करूँगा!'

मैं उनकी ओर कातर निगाहों से देखता हूँ। भोजपुरियों के अनुरोध को न मानाने के परिणाम स्मृति में ताजा हैं। सो मैं सहमति दे देता हूँ।

'कमाल है! ऐसी जगह तो आज तक नहीं देखि जहाँ अतिथि के लिए चिकित्सा, रहना, खाना, घूमना- फिरना, दवाइयाँ सभी कुछ मुफ़्त उपलब्ध हो! ऐसा हो तो फिर तो समाज-सेवा के लिए देश भर में  घूमना-फिरना बड़ा सुकर हो जाये।

मुझे बर्ट्रेंड रसेल द्वारा 'ऑन एजुकेशन' में लिखी वे पंक्तिया याद आती हैं : ब्रिटिश शिक्षा-पद्धति आदमी पर ऊपर के पॉलिश की परत बिठाने में अधिक रूचि लेती है: भीतर के चरित्र को परिष्कृत करने पर कम।' हिंदी शब्दों में कहूँ तो रसेल के अनुसार ब्रिटेन, अमेरिका या यूरोप में 'सभ्यता' अधिक सिखाई जाती है,  'संस्कृति' कम। 'सभ्यता' एक बाहरी चीज़ होती है, 'संस्कृति' भीतरी।

भोजपुरी भाषी शायद बोलने और व्यवहार करने में उतने 'सोफिस्टिकेटेड' नहीं होते, लेकिन अंदर से सहज और स्नेहिल होते हैं। उनमें एक विरल चीज़ होती है 'आत्मीयता', जो आज भारत के शहरों में एक दुर्लभ वस्तु है।  यूरोप और अमेरिका में तो आत्मीयता नाम की कोई चीज़ ढूंढे नहीं मिलती।

मैं निर्भीक हो कर अपनी श्रीमती जी पर हास्य-व्यंग्य की टिप्पणियां कर लेता हूँ, क्योंकि वे मेरी लिखी कोई पोस्ट या किताब नहीं पढ़तीं। उनका मानना है कि मैं एक बहुत ही बोरिंग लेखक हूँ, और मेरी बातें 'सर के ऊपर से निकल जाती हैं।' अगर यह पोस्ट उन्होंने कहीं पढ़ लिया तो आने वाले कुछ महीनो तक भोजपुरी (अ)सभ्यता और मेरे जिले पर  उनका अपना हास्य-व्यंग्य चलता रहेगा।  हालाँकि मैंने उन्हें कई बार कहा है कि जो कहना है मुझे कह लो, मेरे जिले तक न पहुँचो। मगर कौन सुनता है! पता नहीं क्यों, सभी लोग सिर्फ लालू जी और भोजपुरियों के पीछे ही खामखाह पड़े रहते हैं!

पी के सिद्धार्थ
18 सितम्बर, 2016

Friday, 16 September 2016

जे पी और मैं (भाग 4)

जे पी और मैं (भाग 4)
प्रभावती की अहमियत

पी के सिद्धार्थ
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मेरी दादी और प्रभावती का आपसी सम्बद्ध वह था जिसे बिहार में 'गोतनी' कहते हैं। प्रभावती रिश्ते में छोटी थीं। मगर मेरी दादी के मन में उनके प्रति गहरा आदर था। उनसे ही मैंने सुना कि अपने क्रन्तिकारी दिनों में एक बार जब जे पी जेल में थे तो उनसे मिलने प्रभावती जेल में गयीं। प्रभावती गांघी जी के जीवन-दर्शन से अधिक प्रभावित थीं। यानि, पति के विपरीत, गांधीवादी। जेल में जे पी ने उनसे यह आग्रह किया कि उनका एक पत्र अपने ब्लाउज़ में छिपा कर बाहर ले जाएं और  जे पी के साथियों तक पहुंचा दें। प्रभावती ने साफ़ इनकार कर दिया क्योंकि यह गांधीवादी जीवन दर्शन के विरुद्ध था।

लेकिन जे पी सैद्धांतिक मतभेदों का आदर करते थे। दोनों के सैद्धांतिक मतभेद उनके व्यक्तिगत संबंधों के आड़े नहीं आये। बाद में तो जे पी भी गांधीवादी जीवन दर्शन में आ गए। मुझे ऐसा दृढ विश्वास है कि जे पी के इस मत परिवर्तन में, अन्य कारकों के अलावा, निश्चय ही प्रभावती का हाथ भी जरूर रहा होगा।
(क्रमशः)

पी के सिद्धार्थ
16 सितम्बर, 2016

Thursday, 15 September 2016

जे पी और मैं (भाग 3)

जे पी और मैं
(भाग 3)

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जब मैं बड़ा हुआ तो धीरे-धीरे अपनी दादी से जे पी और प्रभावती की कहानियां सुनने-समझने लगा। इसमें से अधिकांश तो जे पी के जीवन पर लिखी जाने वाली किताबों में उपलब्ध होंगी इसलिए यहाँ दोहराने का कोई प्रयोजन नहीं। मैंने गांधी, आंबेडकर, लेनिन, यहाँ तक कि चे गुएवरा की भी जीवनी पढ़ी है, मगर जे पी की कोई जीवनी पढ़ी नहीं, शायद इसलिए कि मुझे लगा कि इनको तो मैं पहले से ही जनता हूँ। मगर कुछ ऐसी बातें, जो शायद परिवार के लोग ज्यादा जानते होंगे, लिख सकता हूँ।

इन कुछ अंतरंग बातों में एक यह थी कि पैदा होने के बाद कई सालों तक जे पी बोल नहीं पाते थे। यह पूरे परिवार में चिंता का विषय बन गया था। यह मान लिया गया कि एक अत्यंत मंद बुद्धि बालक घर में पैदा हो गया था। इसलिए उनका नाम 'बउल' रख दिया गया। मैं नहीं जानता कि ऐसा कोई शब्द शब्दकोश में है, और अगर है भी तो उसका अर्थ क्या होता है, मगर मेरी दादी, जिन्हें हम 'ईया' कहते थे, के अनुसार 'बउल' का अर्थ था 'मंदबुद्धि'। लेकिन मैं आपको बताना चाहूँगा कि जब मैंने जे पी को एक सार्वजानिक मंच से, पटना के गांधी मैदान में, हिंदी में, और बीच-बीच में अंग्रेजी में बोलते सुना, तो मेरे मन में बड़ी हैरानी पैदा हुई कि क्या कोई एक व्यक्ति बोलने वाली अंग्रेजी और बोलने वाली हिंदी में सामान रूप से इंतना निष्णात हो सकता है! और वह भी एक राजनेता! कहीं-न-कहीं वह एक अनुभव मेरे अवचेतन मन में जाकर स्थिर हो गया, और इन दोनों भाषाओँ पर थोड़ा ही मगर समान अधिकार प्राप्त करने को मुझे लगातार प्रेरित करता रहा। मगर कहाँ जे पी और कहाँ मैं! न तो उनके जैसी हिंदी, न उन-जैसी अंग्रेजी बोलने में उनका दस प्रतिशत भी हासिल कर सका। लेकिन यह बात हमेशा मुझे हैरान करती रही है कि इतना अच्छा बोलने वाला व्यक्ति आखिर बचपन में इतने वर्षों तक 'बउल' क्यों बना रहा!

जे पी की भाषण-शैली बहुत विचारशीलता से युक्त थी, सौम्य थी, बहुत तेज गति उसमें नहीं थी, और जरा भी आक्रामकता उसमें नहीं थी। मैंने गांधी को सुना है, अंग्रेजी और हिंदी दोनों में बोलते हुए। उनकी भाषण-शैली को अगर उनके चरित्र और व्यक्तित्व से हटा कर देखा जाय तो वह बहुत ही मामूली लगेगी। नेहरू को भी हिंदी और अग्रेज़ी दोनों भाषाओँ में मैंने बोलते देखा-सुना है, टीवी पर। वे मुझे अधिक प्रभावित नहीं कर पाये। इस विषय में निश्चय ही मतभेद हो सकते हैं, मगर मेरा मत तो यही है।

लेकिन मैं यह बताना चाहूँगा कि अगर जे पी को मैने गांधी मैदान के सार्वजानिक मंच से नहीं सुना होता, तो मैं नहीं जान पाता कि 'बउल' बाबा को (हमारे परिवार में पितामह, यानि पिता जी के पिता को 'बाबा' कहने का रिवाज था।) भोजपुरी के अलावा कोई और भाषा भी बोलनी आती थी, क्योंकि जब भी उनके यहाँ गया तो अपने बाबा के साथ गया, और उसके बाद दोनों भाई सिर्फ भोजपुरी में ही बातें करते नज़र आये! कभी उन्हें हिंदी या अंग्रेजी में वार्तालाप करते नहीं सुना।

पी के सिद्धार्थ
15 सितम्बर, 2016

Wednesday, 14 September 2016

जे पी और मैं (भाग 1)

जे पी और मैं
(भाग - 1)

पी के सिद्धार्थ
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मेरे पारिवारिक स्रोतों के अनुसार श्री जयप्रकाश नारायण के पिता का नाम श्री हरखू दयाल था। वे बिहार में सरकार के नहर विभाग में डेपुटी कलक्टर स्तर के एक अधिकारी थे। उनकी बहन की शादी बिहार के ही आरा जिला के केवटिया गांव के श्री बाँके बिहारी से हुई थी। इन दोनों के चार पुत्र और एक पुत्री हुई। इन्हीं में एक थे मेरे पितामह श्री बजरंग प्रसाद सिन्हा, जिन्होंने उत्तर बिहार में सीवान नामक स्थान में वकालत का पेशा अपनाया। जीवन के अंतिम चरण में वे पटना चले आए और वहां उन्होंने कुछ दिनों तक पटना हाई कोर्ट में भी वकालत की। 1971 में पटना में अपना मकान भी बना, और उसी मकान में मेरे माता-पिता, मैं और मेरे भाई-बहन भी दादा-दादी के साथ रहने लगे। 'जे पी' या श्री जयप्रकाश नारायण, जिन्हें बाद में 'लोकनायक' की उपाधि से भी नवाजा गया, मेरे पितामह के ममेरे भाई रहे।

जे पी भी पटना में ही रहते थे। उनका मकान, जिसे चरखा समिति के नाम से अधिक जाना जाता था, हमारे घर से कोई 4 किलोमीटर पर स्थित था, जो पटना जैसे छोटे शहर में बड़ी दूरी ही मानी जाती थी। इसलिए बहुत जल्दी-जल्दी आना-जाना नहीं हुआ करता था। बीच-बीच में मेरे पिता जी उन्हें देख आया करते थे।

1974 के आंदोलन के पूर्व परिवार में जे पी से अधिक मैं उनकी पत्नी प्रभावती जी की चर्चा सुना करता था क्योंकि मेरा कोई संवाद मेरे पिता और बाबा (पितामह) से नहीं हो पाता था। कुछ ऐसी ही परंपरा थी हमारे घर में, या हर घर में उस समय। दादा जी की प्रकृति भी बहुत बात-चीत करने वाली नहीं थी। मगर मैं अपनी दादी से काफी घनिष्ट था, और उनसे प्रभावती जी की कहानियां सुन कर तो उस समय ऐसा ही लगता था जैसे जे पी से भी बड़ी शख्सियत वे ही थीं।
(क्रमश:)

पी के सिद्धार्थ
14 सितम्बर, 2016

Monday, 12 September 2016

हमारी धरती माँ और हम!

हमारी धरती माँ और हम!

पी के सिद्धार्थ
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मैं अपने ड्राइंग रूम मैं बैठ कर एक समूह कुछ लोगों के साथ एक लोकहित याचिका पर काम कर रहा हूँ। दरवाजा ताज़ी हवा के लिए खोल रखा है। इसी बीच एक युवक कहीं से दरवाज़े के फ्रेम में प्रकट होता है। हाथ में मोटी-मोटी किताबें हैं।

"सर, मैं नैशन्सल जियोग्रफी से हूँ। इसकी एक किताब आपको दिखाना चाहता हूँ। मैं अंदर आ सकता हूँ?"

मैं इधर-उधर देखता हूँ। वित्त-सह-गृह मंत्री कहीं आस-पास नहीं दिखती हैं। शायद किचन में हैं।

सुरक्षित महसूस कर मैं युवक को इशारे से अंदर बुलाता हूँ।

अंदर आकर वह बताता है कि नैशनल जियोग्राफी की किताब 'आंसर बुक', जो ढाई हज़ार रुपयों की है, सिर्फ एक हज़ार में देने का ऑफर है। उसके साथ डी के-पेंगुइन की  बड़ी-सी आर्ट पेपर पर छपी रंगीन विज़ुअल डिक्शनरी मुफ़्त!

"नौजवान, परेशानी यह है कि मेरे घर में किताब रखने की कोई जगह नहीं बच गई है।"

"सर, लेटेस्ट बुक है। आप एन्जॉय करेंगे।"

"भाई, अगर किताबों के लिए जगह बनाने के लिए मुझे घर से निकाल दिया गया तो?"

मैं किताबों के प्रकाशन की तिथि देखता हूँ : 2016। अंदर देखता हूँ : पृथ्वी से लेकर ब्रह्माण्ड तक पर अद्यतन तथ्य। सामने एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के 29 मोटे-मोटे खंड शेल्फ में पड़े मुझे घूर रहे होते हैं। मगर वे तो 25 साल पुराने हो चुके हैं। उनमें पिछले 25 वर्षों की बिलकुल अद्यतन वैज्ञानिक खोजें नहीं मिलेंगी।

मैं गृह-निर्वासन का खतरा मोल लेते हुए जेब से अपने पॉकेट खर्च के पैसों में से हज़ार रुपये निकाल कर किताबें खरीद लेता हूँ। युवक प्रसन्न भाव से चला जाता है।

रात में दोनों पुस्तकों को बिस्तर में पड़े-पड़े उलटता-पलटता अपने ज्ञान को अद्यतन करता हूँ। धीरे-धीरे नींद आ जाती है।

अचानक मैं  देखता हूँ कि मैं धरती पर सीधा खड़ा हूँ, और मेरा शरीर आसमान की ओर बड़ा होने लगा है। मैं नीचे देखता हूँ। धरती किसी फुटबॉल-जैसी छोटी हो गयी है। मैं धरती के चारों और घूमता हूँ, शेषनाग को तलाशने के लिए जिनके फन पर, कभी कोई पुराण पढ़ कर मेरी दादी ने बताया था, धरती टिकी रहती है। मैं पाता हूँ कि धरती तो आसमान में यूँ ही लटकी हुई है! कहीं कोई शेषनाग और उनका फन नहीं दिखता! मैं यह भी देख पाता हूँ कि धरती न तो 'डिस्क' जैसी है, न सपाट। यह तो फुटबॉल जैसी गोल है! फिर ह्यूमन राइट्स वाच की वह रिपोर्ट याद आती है जिसके अनुसार बोको हरम ने नाइजीरिया में 2009 से अबतक 600 भूगोल के शिक्षकों और छात्रों को अब तक गोलियों से भून डाला है क्योंकि वहाँ भूगोल की कक्षाओं में शिक्षक पढ़ा रहे हैं कि धरती गोल है, कालीन की तरह सपाट नहीं, जैसा कि बोको हरम के अनुसार उनके नबी और खुदा ने बताया है!" नाहक 600 निर्दोष लोगों की जान ली।", मैं सोचता हूँ।

मैं धरती को अंतरिक्ष से देख कर अचरज में पड़ जाता हूँ! इतनी सुन्दर! धरती पर तो तीन-चौथाई सतह पर पानी-ही-पानी है, धरती को गहरा नीला रंग प्रदान करता हुआ!  कितनी सुन्दर है यह धरती!

मेरा शरीर और बड़ा होता चला जाता है। धरती फुटबॉल के आकार से भी छोटी होकर एक बिंदु की तरह हो जाती है, और फिर नजरों से ओझल हो जाती है। पहले सूरज के करीब आता हूँ। ओह, बहुत गरम! मैं दूर हटता हूँ। ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता हूँ, हज़ारों सूरज-जैसे और उससे भी बड़े-बड़े आग के जलते हुए गोले, जिन्हें 'स्टार' या सितारा कहता रहा हूँ, और जिन्हें देख कर बचपन में 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार' गाया करता था, बड़े ही तप्त और पीड़ादायी लगते हैं। लाखों-करोड़ों डिग्री सेल्सियस की गर्मी! लेकिन तारों से दूर खली स्पेस में जाता हूँ तो असह्य ठंड लगती है। फिर इधर से उधर भागते हुए उल्कापिंड और ग्रहिकाएं - जैसे चारों और से पथराव हो रहा हो। उनसे बचते-बचाते ऊपर उठता जाता हूँ। बीच-बीच में तारों के बीच की इंटर-स्टेलर धूल और गरम गैस के आलोकित बादल जिन्हें हम निहारिका या नेब्युला कहते रहे हैं, त्रास देते हैं।

अब मैं इतना बड़ा हो चुका हूँ कि हमारे सूरज भगवान, जिसकी स्तुति में कभी 'आदित्य ह्रदय स्तोत्र' पढ़ा करता था,  होते-होते एक तारे के बिंदु-जैसे हो जाते हैं, और करोड़ों सितारों के बीच कहीं खो जाते हैं!  मैं इतना बड़ा हो गया हूं कि अपनी मिल्की-वे गैलेक्सी दिवाली में फर्श पर प्रकाश के छर्रे छोड़ती किसी घूमती हुई घिरनी की तरह दिख रही है, जिसके मध्य में सघन प्रकाश पुंज और चारों ओर इसी से जुड़ी प्रकाश के छर्रों की गोल स्पाइरल 'आर्म्स'। पूरे अंतरिक्ष में चारों और ऐसी ही दीवाली, विस्फोट, आतिशबाजी! तारों के बीच के विशाल खाली अंतरिक्ष में धुप अँधेरा: सिर्फ तारों और नीहारिकाओं के नजदीक प्रकाश।

तभी मैं देखता हूं कि मेरी ओर अंतरिक्ष से दो लोग चले आ रहे हैं। दो इंसानों को देख कर भय कम होता है और सुकून मिलता है। मैं पूछता हूं, 'आपलोग कौन?'

उनमें से एक बताते हैं, "मेरा नाम है एडविन हबल।" दूसरे सज्जन कहते हैं कि उनका नाम है हारलो शैप्ली।

"अरे, आप दोनों तो प्रसिद्ध अंतरिक्ष- विज्ञानी हैं!"

"सही पहचाना आपने! हम उनकी आत्मा हैं जो मृत्यु के बाद अंतरिक्ष के रहस्य आगे और तलाशने के लिए घूमते रहते हैं!"

"भाई, यह जो खाली अंतरिक्ष का खरबों किलोमीटर का जो खाली अंतरिक्षीय शुन्य या वैक्यूम है, यहाँ का तापमान क्या है? असह्य ठण्ड है!"

"ऐब्सल्युट ज़ीरो", शैप्ली बताते हैं।

"यह क्या होता है?", मैं ठिठुरता हुआ पूछता हूँ।

"इस तापमान पर मॉलिक्यूल, ऐटम और एलेक्ट्रोन की गति ठहर जाती है।"

"देखिये दोस्तो, मैं बड़ा परेशान हूं। पता नहीं मुझे क्या हो गया है। मैं बड़ा होता चला जा रहा हूं। यह मेरी बायीं ओर मेरी मिल्की-वे आकाशगंगा दिख रही है, जिससे मैं अभी-अभी निकला हूँ! मैं खोज नहीं पा रहा हूं कि इसमें सौरमंडल कहां है, सूरज कहां है, मेरी धरती कहां है! आखिर कितने सूरज-जैसे तारे हैं, इसमें?"

"मेरे भाई, यह तो एक बहुत ही साधारण-सी आकाशगंगा है. इसके एक छोर से दूसरे छोर तक जाने में सिर्फ एक लाख प्रकाशवर्ष लगते हैं, यानी एक छोर से दूसरे छोर तक यह सिर्फ 9460 अरब किलोमीटर है।", हबल बताते हैं। "इसमें 100 अरब से ज्यादा सूरज-जैसे सितारे हैं, जिनमें हमारा सूरज भी एक है। कई सितारे सूरज से हज़ार गुने बड़े हैं!"

मैं अपने माथे का पसीना पोछता हूँ।

"अभी तक वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि ब्रह्मांड में कम-से-कम 10 अरब गैलेक्सियां हैं, जिनमें से प्रत्येक में  औसतन 100 अरब सितारे मौजूद  हैं।  हर क्षण करोड़ों सितारों की मृत्यु हो रही है। जैसे दीवाली में हमारी फुलझड़ी जल कर खत्म हो जाती है वैसे ही सितारे जलकर अंत में शेष हो जाते हैं। एक दिन हमारा सूरज भी शेष हो जाएगा। सूरज अपनी आधी जिंदगी जी चुका है। कुछ अरब वर्षों में वह भी बुझ जायेगा, और उसके साथ धरती का भी अंत हो जायेगा, क्योंकि सूरज की गरमी से ही धरती पर जीवन है। करोड़ों सितारे हर क्षण अंतरिक्ष में इन निहारिकाओं की गैस से घनीभूत हो कर जन्म भी ले रहे हैं!"

"यह हमारी गैलेक्सी के सबसे नजदीक जो गैलेक्सी दिख रही है, उनका नाम क्या है?', मैं पूछता हूँ।

शैप्ली उँगली से संकेत कर बताते हैं, "ये है ऎंड्रॉमिडा आकाशगंगा। हमारी मिल्की-वे की तरह ही स्पाइरल गैलेक्सी है जैसा कि आप देख सकते हैं।"

"और ये सारी आकाशगंगाऐं आकाशगंगाओं के एक बड़े समूह या 'क्लस्टर' का हिस्सा हैं, जिसे 'वर्गों सुपरक्लस्टर' कहते हैं। हमारे जैसी एक लाख आकाशगंगाएँ  इस वर्गों क्लस्टर में हैं!", हबल आगे बताते हैं।

"ये बताएं दोस्तों, आखिर पूरे ब्रह्माण्ड के सभी सितारों, आकाशगंगाओं और क्लस्टसर्स के नाम अंग्रेजी और यूरोपीय भाषाओँ में ही क्यों हैं? उर्दू, फारसी, अरबी, हिंदी, संस्कृत में क्यों नहीं?", मैं पूछता हूँ।

हबल और शैप्ली एक दूसरे की और देखते हैं, फिर मुस्कराते हैं।

"मुझे लगता है कि उर्दू, फारसी और अरबी लिखने-पढ़ने वाले सारा ज्ञान कुरान-हदीस में खोजते रहते हैं; और संस्कृत वाले, सुना हैं, यह मानते हैं कि 'जो ज्ञान वेदों में नहीं, वह कहीं नहीं'! इसलिए वे किसी सितारे, आकाशगंगा या क्लस्टर की तलाश में समय नष्ट नहीं करते। उनके नबी और ऋषि सभी कुछ पहले से ही जानते हैं। जो इन सितारों,  गैलेक्सियों को तलाशेंगे उन्हीं की भाषा और उन्हीं के नाम पर तो इन चीजों के नाम रखे जाएंगे न!", हबल मुस्कुरा कर स्पष्ट करते हैं।

"लेकिन हिंदीभाषी?", मैं पूछता हूँ। वे तो किसी धर्मग्रन्थ से चिपके नहीं रहते! मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उन्होंने तो कई दशकों से किसी धर्मग्रन्थ को हाथ तक नहीं लगाया! वे तो आज अपने किसी ऋषि का नाम तक नहीं जानते!", मैं कहता हूँ।

"मैंने सुना है वे अब विज्ञान में कुछ-कुछ कर रहे हैं, मगर उनकी आत्माएं यह बताती हैं कि वे ज्यादा समय बिना किसी राजनितिक दल में शामिल हुए भी राजनीति में ही, और जातीय समीकरण बिठाने में लगाते है! आप उनके बारे में ज्यादा जानते होंगे!", शैप्ली फुसफुसा कर धीरे से मेरे कान के नजदीक आ कर कहते हैं।

"क्या आपको पता चला यह ब्रह्मांड कितना बड़ा है और कहां इसका अंत होता है?",  मैं बात बदलता हूँ।

"नहीं, कोई पता नहीं! अभी तक 10 अरब आकाशगंगाओं  का पता चला है जिनमें से प्रत्येक में औसतन 100 अरब सितारे पाये गए हैं। अभी आगे खोज चल ही रही है! इस ब्रह्माण्ड का अंत कहाँ होता है यह नहीं पता चलता।"

"कहीं आपको पानी मिला?"

"नहीं, अभी तक तो नहीं!"

"लेकिन बाइबल तो कहती है जब सृष्टि नहीं हुई थी तब सर्वत्र जल ही जल था, जिस पर ईश्वर की आत्मा तैर रही थी! कहाँ गया वह सब पानी?", अबकी बार उनपर प्रहार करता हुआ, बदला लेने की कोशिश करता हुआ,  मैं प्रश्न दागता हूँ।

"मुझे तो पूरे ब्रह्माण्ड में अभी तक कहीं तरल अवस्था में जल नजर नहीं आया।", हबल अपना सर खुजलाते हुए बताते हैं।

"क्या कहीं आपको जीवन नजर आया?"

"हो सकता है कहीं बैक्टीरिया के रूप में हो, लेकिन विकसित जीवन तो कहीं नहीं दिखा। वही तो हम तलाश रहे हैं।" इस बार शैप्ली निराशापूर्वक कहते हैं।

"अंतरिक्ष तो बड़ा भयावह है। चारों ओर धुप अंधेरा और पूरे अंतरिक्ष में अनवरत आतिशबाजी और रोड़ेबाजी। कहीं जल की शीतलता और नीलापन नहीं दिखता। सब जगह आग, ताप, कहीं असह्य ठंढ! कहीं भी जीवन नहीं। मित्रो, मुझे मेरा सौरमंडल, मेरी धरती मुझे दिखा दो! मुझे वहां ले चलो! मैं तुम्हारा सदा कृतज्ञ रहूँगा।

चलो साथी, चलते हैं। हमें पता है आपकी धरती कहां है। वह आपकी मिल्की-वे गैलेक्सी के केंद्र से काफी हट कर उसके ओरियन आर्म में स्थित है।

मैं उन दोनों को गले लगा लेता हूं। हम तीनों चलते हैं अपनी धरती की ओर। मेरा शरीर छोटा होने लगता है। ओह दूर से ये सितारे कितने सुंदर लगते हैं, लेकिन नजदीक जाने पर कितने गरम, भयानक और आक्रामक हैं ये!

यह देखो हमारी धरती आ गई! शीतल, नीले रंग वाली, जिस पर जीवन  का अंकुर है, जिस पर सोचने समझने और महसूस करने वाला इंसान नाम का जीव भी रहता है, जो सोच सकता है, भावनाएं महसूस कर सकता है, प्रेम कर सकता है! पूरे ब्रह्माण्ड में एकमात्र ऐसा जीव! और ऐसे जीव और जीवन को धारण करने वाला पूरे ब्रह्माण्ड में एकमात्र ऐसी जगह - हमारी धरती!अंतरिक्ष से नीचे उतरते हुए लगता है इस प्यारी धरती को बाँहों में भर लूँ!

इसी बीच नींद खुल जाती है, और मैं बिस्तर पर उठकर बैठ जाता हूँ! मैं फिर अपनी प्यारी धरती पर हूं, यह अहसास मुझे अभिभूत कर लेता है।

कल खरीदी गयी पुस्तकें मेरी बगल में पड़ी हैं, मुझे प्यार से निहारती हुई। मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने मुझे पूरे ब्रह्माण्ड की सैर कराई। मगर तभी कमरे में हर्बल टी लिए गृहस्वामिनी का प्रवेश होता है।

"आपने फिर साढ़े चार हज़ार रुपये फूँक दिए!"
"नहीं भई, ब्रह्माण्ड घूमने में कोई पैसे नहीं लगे!"
"क्या मतलब?", गृहस्वामिनी हैरान हो कर मुझे देखती हैं! "अभी भी नींद में हैं क्या? मैं इन किताबों की बात कर रही हूँ!", वे  किताबों की और इशारा कर फरमाती हैं।

"ओह, समझा! नहीं भई, सिर्फ एक हज़ार लगे!"
"मैंने कीमत देखी है! दोनों मिला कर 4494 रुपये!"
"मगर स्पेशल ऑफर में सिर्फ 1000 में मिल गए!"
"अच्छा, मगर किस बुकशेल्फ में डालेंगे? कोई जगह भी तो होनी चाहिए घर में!"

विरोध जाता कर, ब्रह्माण्ड की मेरी सैर से बेखबर गृहस्वामिनी चाय की चुस्कियां लेती हुई व्हाट्स ऐप में आये चुटकुले और सन्देश देखने अपनी आकाशगंगा में व्यस्त हो जाती हैं, और मैं सोचता रह जाता हूँ, क्यों हम पूरे ब्रह्माण्ड में सबसे अनोखी अपनी इस प्यारी धरती को नष्ट करने पर क्यों तुले हुए हैं! पर्यावरण का नाश, सांप्रदायिक दंगे, नस्लभेद, आतंकवाद, नफरत, जाति-पाति, लड़ाई-झगड़े! आखिर कब तक हम समूचे ब्रह्माण्ड में सबसे अनमोल अपने मानवीय अस्तित्व का मूल्य समझ पाएंगे!

पी के सिद्धार्थ
12 सितम्बर, 2016