Indian Culture and Civilization
Sunday, 5 November 2017
Sunday, 22 January 2017
The Story of the Bhagwadgita 1
Tuesday, 27 December 2016
सुविधाविहीन बच्चों के प्रथम शिविर के अन्य संमरं (2)
सुविधाविहीन बच्चों के प्रथम सम्पूर्ण निर्माण शिविर (2006-07) के अन्य संस्मरण (2)
पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल
'एफिल टावर कैसे बनते' नामक बाल-गीत को बाद में मुम्बई के एक ख्यात संगीतकार ने एक धुन प्रदान की, और दिल्ली के एक स्टूडियो ने संगीत से सजाया। इस पर एक वीडियो भी बना जो इस लिंक पर यू-ट्यूब पर देखा जा सकता है :
https://www.youtube.com/watch?v=Ags7CIifI3Y
शिविर को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर रखने के लिए उपाय सोचे गए। सरकार को तो हम छूना नहीं चाहते थे। वहाँ से कोई सहायता बिना पचास दौड़ लगाये और लिपिकों-अधिकारियों के हाथ गर्म किये साधारणतः नहीं मिला करती। मेरे मित्र और व्यक्तिगत रूप से ईमानदार माने जाने वाले एक आई ए एस अधिकारी सुखदेव सिंह कल्याण विभाग के जब सचिव हुआ करते थे तो उनसे एक प्रोजेक्ट अनुमोदित कराने का अनुरोध किया था, लेकिन वे असफल रहे थे। असफल होने पर उन्होंने मुझे एक जुमला सुनाया था : "ऊपर मंत्री नीचे क्लर्क, होगा नहीं आपका वर्क"। वे ही सज्जन शिविर लगाते वक्त शिक्षा सचिव थे। अतः उनसे मदद मांगना व्यर्थ लगा। प्राइवेट डोनर एजेंसियां भी सरकार की तरह ब्यूरोक्रेटिक हो गई हैं, और किसी चीज के लिए अनुदान देने में न केवल बहुत समय लगाती हैं, बल्कि उनके भी स्थानीय प्रतिनिधि बिना 'कट' मिले कोई अनुदान नहीं दिलवाना चाहते। भ्रष्टाचार सिर्फ सरकार में है, यह समझना बड़ी भूल है।
अतः मैंने यह निर्णय किया कि बच्चों के अभिभावकों से यह कहा जाय कि वे अपने बच्चों के लिए एक महीने के लिए आवश्यक सूखा राशन और सूखी सब्जियां खुद ही प्रदान करें। जो नहीं प्रदान कर पाएं, वे चिंता न करें, हम अपनी और से व्यवस्था करेंगे।
उन्होंने पूछा कि कौन-कौन-सी चीज़ कितनी-कितनी मात्रा में दें। मैं खुद इस मामले में अनुभव नहीं रखता था। अतः मैंने भारी उद्योग निगम की मजदूरों की कैंटीन के मैनेजर से सहयोग माँगा। उन्होंने एक वयस्क मजदूर के भोजन के आधार पर एक चार्ट प्रस्तुत किया। लेकिन चूँकि इस शिविर में भोजन पकाने वाली टीम के सदस्यों, बच्चों से अपने अनुभव साझा करने के लिए हर दूसरे दिन आने वाले शहर के मुख्य व्यक्तियों, अतिथि शिक्षकों, कंपनी के दो-तीन प्राइवेट गार्डोंआदि को भी भोजन कराना था, इसलिए मैंने भोजन के सूखे राशन को डेढ़गुना करते हुए अभिभावकों को एक सूची उपलब्ध करवा दी।
शिविर में एक भी ऐसा बच्चा नहीं आया जिसके अभिभावक ने सूची के अनुसार सूखा राशन, आलू, न्यूट्रिनगेट की बड़ियाँ, सूखे चने और छोले मटर, बोतल में सीलबंद (खाना पकाने का) तेल आदि उपलब्ध नहीं कराया हो। गैस के सिलिंडरों की व्यवस्था आस-पास ही निवास रखने वाले सांसद श्री सुबोधकांत सहाय ने अनुरोध करने पर करा दी। मकान एच ई सी ने निःशुल्क उपलब्ध कराया। बाकी खुदरा खर्च की जिम्मेवारी मैंने खुद ली। अतः पूरी व्यवस्था से लैस हो कर हमने शिविर की शुरुआत की।
मगर हमें यह देख कर बहुत हैरानी हुई कि एक हफ्ते में सारा राशन ख़त्म हो गया। मैंने तफ्शीश की, रसोइये से पूछा। उसने बताया कि बच्चे छक कर तीनों-चारों समय खा रहे थे, और वह पूड़ियाँ छानते-छानते हैरान था। उसने यह भी बताया कि वह खाने की मात्रा पर नियंत्रण करने की सिफारिश कर चुका था, जैसे एक समय अधिकतम 10 पूड़ियाँ, मगर 'कैम्प मदर' का निर्देश था कि बच्चे ईश्वर का अवतार होते हैं इसलिए बच्चों के खाने पर कोई सीमा नहीं होगी। एच ई सी कैन्टीन के मैनेजर ने बताया कि समूह में खाने पर बच्चे दुगना खा लेते हैं। कभी-कभी तो अधिक खाने की प्रतिस्पर्धा भी हो जाती थी। अब मेरे पास इसके सिवा कोई चारा नहीं था कि मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँ कि अपने 22 अवतारों और उनके लिए शिविर में काम करने वालों के भोजन की व्यवस्था करने की कृपा करें।
उस समय छठे वेतन आयोग की अनुकम्पा प्राप्त नहीं हुई थी, और महीने की 25 ता: आते-आते हालत खास्ता हो जाती थी। फिर भी मैंने अपनी जेब से राशन और सब्जियां मंगानी शुरू कीं। आने वाले वक्ता अतिथियों में से एक सिंधी मित्र श्री भवनानी ने भी अनाज भिजवाया। ईश्वर की कृपा से काम चल गया।
मैंने यह नियम बना दिया था कि हर एक दिन के अंतराल पर अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले विशिष्ट अतिथियों को बुलाया जायेगा जो बच्चों को अपने अनुभव बताएंगे। भारी उद्योग निगम, मेकॉन तथा सी सी एल के चेयरमैन, झारखण्ड के मुख्य हिंदी अख़बार प्रभात खबर के मुख्य संपादक हरिवंश, रांची दूरदर्शन के निदेशक, राज्य के प्रधान शिक्षा सचिव सुखदेव सिंह, झारखण्ड चेंबर ऑफ़ कॉमर्स के अध्यक्ष अर्जुन जालान, उपाध्यक्ष अरुण बुधिया एवं सचिव प्रदीप जैन आदि उन लोगों में से थे जिन्होंने बच्चों को आकर संबोधित किया, उन्हें बड़ा बनने की प्रेरणा दी, और उनके साथ बैठ कर भोजन भी ग्रहण किया। चेम्बर ऑफ कॉमर्स ने एक दिन चेंबर भवन में सभी बच्चों को बुला कर 'फाइव-स्टार' लंच भी कराया।
इन महानुभावों के साथ मिल कर, और उनसे यह सुन कर कि वे 'बड़े आदमी' कैसे बने, बच्चों के दिमाग में निश्चित रूप से नए वातायन खुले। (क्रमशः)
पी के सिद्धार्थ
8252667070
28.12.2016
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सुविधाहीन बच्चों के प्रथम सम्पूर्ण निर्माण शिविर के अन्य संस्मरण (1)
सुविधाविहीन बच्चों के प्रथम सम्पूर्ण निर्माण शिविर (2006-07) के अन्य संस्मरण (1)
पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल
शिविर, जिसके दो बच्चों की चर्चा मैं कर चुका, की शुरुआत चिल्ड्रेन्स एन्थम या बाल गीत से की गयी। वह गीत कुछ इस प्रकार से था :
एफिल टावर कैसे बनते
लोहे से, इस्पात से?
नहीं-नहीं ये बनते हैं
कुछ करने के जज़्बात से।
ताजमहल कैसे बनते संग-
मरमर से पाषाण से?
नहीं-नहीं, नहीं-नहीं,
ये बनते हैं मेहनत से,
कल्पनाशक्ति-संधान से।
गोल्डन टेम्पल कैसे बनते,
सोने से, चट्टान से?
नहीं-नहीं ये बनते हैं,
भावना और बलिदान से।
सैटेलाइट कैसे बनते,
कलपुर्जों की शान से?
नहीं-नहीं ये बनते हैं,
इच्छाशक्ति और ज्ञान से।
इच्छाशक्ति, बुद्धि, कल्पना,
मेहनत और लगन ये,
धन से नहीं खरीदी जातीं,
उठती अंतर्मन से।
इन्हीं शक्तियों से देंगे हम
मोड़ समय की धारा,
जिससे बढ़ कर विश्वजयी हो,
हिंदुस्तान हमारा।
बच्चों को मैंने बताया कि प्रकृति-प्रदत्त बुद्धि या आई-क्यु चाहे जितनी भी हो, उसे बहुत अधिक बढ़ाया नहीं जा सकता। मगर भावना को बहुत बढ़ाया जा सकता है। बुद्धि और भावना को मिला कर ही जीवन में सफलता की मात्रा निर्धारित होती है। प्रकृति ने अगर आई-क्यु 100 में 10 दी है और भावना भी 100 में 10 तो कुल सफलता साधारणतः 20 ही होगी। प्रकृति-प्रदत्त आई-क्यू को 10 से बढ़ा कर 15 किया जा सकता है, मगर शायद उससे अधिक नहीं। मगर भावना को बढ़ा कर 10 दे 90 भी किया जा सकता है। तब सफलता होगी 15 (बुद्धि) plus 90 (भावना) अर्थात 105. इसलिए ऊँचा उठने की भावना विकसित करने पर ध्यान दें। खूब लगन की भावना से पढ़ें, और जादू देखें।
अगर एफिल टावर लोहे और इस्पात से बनते तो सबसे पहले कहाँ बनते, यह प्रश्न बच्चों से पूछा गया।
बच्चे चुप रहे।
मैंने कहा, भारत के झारखण्ड-ओडिसा मे, क्योंकि वैसा बढ़िया इस्पात तो यहीं पाया जाता है, फ़्रांस में नहीं। मगर यह तो एफिल नमक इंजिनियर के जज्बात थे, भावना थी कि वह दुनिया का सबसे ऊँचा टावर बना कर दिखा देगा, जिसने दुनिया का सबसे ऊँचा टावर फ़्रांस में सचमुच खड़ा कर दिया।
गोल्डन टेम्पल जब सिख्खों ने बनाना शुरू किया तो आक्रमणकारियों ने उसे 7 बार तोड़ा और हर बार सिखों का कतल किया। मगर सिक्खों ने बलिदान देकर भी हर बार एक नया बेहतर टेम्पल खड़ा किया। आज सोने से मढ़ा हुआ गोल्डन टेम्पल दुनिया के सुन्दरतम मंदिरों में एक है। यह सिख्खों की भावना और उनके बलिदान का प्रतीक है। बहुत बड़ी उपलब्धियां विरले ही बिना उत्कट भावना और बलिदान के प्राप्त होती हैं।
बच्चों को यह भी बताया गया कि भावनाएं बाजार में नहीं मिलतीं बल्कि हमारे अंतर्मन में रहती हैं। इसलिए उन सभी को सुलभ हैं।
बच्चों ने बड़े ध्यान से इन बातों को सुना और गुना! मुझे नहीं पता था कि आने वाले हफ़्तों में इन बच्चों की भावना भी प्रज्वलित हो कर एक नया रंग दिखलाने वाली थी। (क्रमशः)
पी के सिद्धार्थ
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27 दिसंबर, 2016
Sunday, 25 December 2016
मेरा प्रिय छात्र अमरजीत
मेरा प्रिय छात्र अमरजीत
पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल
सुविधाविहीन बच्चों के इस सम्पूर्ण निर्माण शिविर ने मुझे यह अनुभव दिया कि एक चौथाई बच्चे बेहद मेधावी थे और एक चौथाई बेहद मंदबुद्धि। बाकी औसत बुद्धि के थे। बेहद मेधावी बच्चों में एक था अमरजीत कुमार। इस बच्चे पर शिविर शुरू होने पर मेरी पहली विशेष नज़र तब पड़ी जब मैंने दूसरे ही दिन सुबह शिविर में जाने पर यह पाया कि अमरजीत नाम का एक बच्चा अनुपस्थित था। फिर जब बच्चों के पास दिन के भोजन में शरीक होने आया तो मैंने उसे बुला कर जवाब तलब किया कि वह कहाँ गायब हो गया था। उसने तब मुझे बताया कि वह सुबह 4 बजे से 7 बजे तक अख़बार बांटता था, और अपने परिवार के लिए रोजी-रोटी जुटाता था। उसके पिता भी यही काम करते थे, यानि पेपर भेंडर थे। बड़ा परिवार था, और माता-पिता के अलावा एक छोटा भाई और चार बहनें थीं। इसलिए अगर महीना भर उसने अख़बार बांटना छोड़ दिया तो घर का खर्च चलाना मुश्किल हो जा सकता था। इसलिए उसने मुझसे रोज सुबह तीन से साढ़े तीन घंटे अनुपस्थित रहने की छूट मांगी।
मेरे पास उसकी पूरी जुबानी सुनने के बाद इसके सिवा कोई चारा नहीं बचा कि मैं उसे अनुमति दूँ। मगर यह मेरी कल्पना के बाहर था कि इतना छोटा बच्चा पेपर भेन्डिंग का काम कर घर का खर्च चलाने में अपने पिता की मदद करे। लेकिन सच्चाई यही थी। मुझे बाल श्रम क़ानून के सन्दर्भ में हुई न्यायमूर्ति सावंत से वार्ता याद आ गयी कि हम पश्चिमी देशों के विचारों और कानूनों की अंधाधुंध नक़ल बिना अपने देश की जमीनी सच्चाई का आकलन किये करते जा रहे हैं। न्यायमूर्ति सावंत के विचार में भारतीय बाल श्रमिक कानून भी अव्यवहारिक था, क्योंकि बहुतेरे गरीब परिवारों में 14 साल से कम के बच्चे बाल-श्रमिक बन दो शाम की रोटी जुटाने में मदद करते हैं। अमरजीत इसका एक उदहारण था। लेकिन अभी मेरे दिमाग में कानून कम और शिक्षा अधिक सक्रिय थी।
अमरजीत की विशेषता यह थी कि वह 3-4 घंटे अनुपस्थित रह कर भी सबसे आगे चल रहे बच्चों की पंक्ति में था, और अगर उसे पूरा समय बाकी बच्चों की तरह मिला होता तो वह तौसीफ से पीछे नहीं रहता।
इस बच्चे की दूसरी विशेषता यह थी कि उसे अपने जीवन से कोई शिकायत नहीं थी, और वह हमेशा प्रसन्नचित्त रहता था। अपनी साइकिल वह शिविर में ही रखता था, और वहीँ से जाकर अख़बार उठा कर घर-घर बाँट कर ख़ुशी-ख़ुशी शिविर में आकर पढ़ने में लग जाता था। यह उसके जीवन की परिस्थितियों के बीच एक विरल चीज़ थी।
मैंने बाद में दिल्ली में 5 राज्यों के बच्चों का जब 10 दिनों का एक सम्पूर्ण निर्माण शिविर लगाया तो अमरजीत को उसमे भी आमंत्रित किया। वहां उसे अख़बार बेचने के लिए समय बिताने की जरुरत नहीं थी, इसलिए कई राज्यों के लगभग 120 बच्चों के बीच वह प्रथम आया।
मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि शिविर के 4-5 बच्चे इतने मेधावी थे कि अगर वे किसी सुविधासंपन्न घर में पैदा हुए होते तो आई आई टी-जैसी परीक्षाएं आसानी से निकाल लेते। अथवा अगर देश की शिक्षा-व्यवस्था इस प्रकार की होती कि सारे ऐसे मेधावी बच्चों को अलग कर उनके लिए बेहतर शिक्षा की व्यवस्था कर पाती तो भी यह संभव हो पाता।
पी के सिद्धार्थ
8252667070
pradeep.k.siddharth@gmail.com
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Friday, 23 December 2016
मेरा प्रिय छात्र तौसिफ भाग 1
मेरा प्रिय छात्र तौसीफ (भाग 1)
पी के सिद्धार्थ
अध्यक्ष, भारतीय सुराज दल
तौसीफ अली 2006 में मुझे रांची में मिला। छोटा-सा, छठी क्लास का एक मासूम-सा दिखने वाला बच्चा जो भारी उद्योग निगम क्षेत्र की एक झुग्गी-झोपड़ी में अपने मजदूर पिता और परिवार के साथ रहा करता था, और 20 रुपये मासिक फीज़ वाले भारी उद्योग निगम के स्कूल में पढता था। तौसीफ और झुग्गियों में रहने वाले उसके स्कूल के अन्य 21 नन्हे साथियों ने मुझे आने वाले एक महीने में यह अहसास दिलाया कि कैसे हमारा देश झुग्गियों में रहने वाले हज़ारों नार्लीकर, न्यूटन, इंजीनियर, आइ ए एस, आइ पी एस, कवियों और कलाकारों की भ्रूण हत्या कर रहा है, उन्हें आपराधिक उपेक्षा का शिकार बना कर।
शिक्षा पर काम करते हुए आइ-क्यू या बुद्धि-लब्धि पर इंग्लैण्ड के एक शोधपत्र में पढ़ा था कि स्लम या झोपड़पट्टी के बच्चे मंद बुद्धि हुआ करते हैं। शायद कुपोषण की वजह से, या संभव है 'एक्सपोज़र' की कमी के कारण! दूसरी ओर यह भी देखा कि आधुनिक शिक्षा-शोध ने यह पाया है कि जीवन में, और सीखने में भी, आइ-क्यू या बुद्धि-लब्धि से अधिक महत्वपूर्ण ई- क्यू या भावना-लब्धि होती है।
मुझे उत्सुकता हुई कि झोपड़पट्टी के बच्चों के साथ एक महीने का एक आवासीय शिक्षा-शिविर आयोजित कर इन सिद्धांतों की सत्यता-असत्यता का व्यक्तिगत अनुभव प्राप्त करूँ। शिक्षा की मैंने कुछ अलग प्रणालियां भी विकसित की थीं। उन्हें सामान्य और सामान्य से बेहतर 'आइ-क्यू' के बच्चों पर सफलतापूर्वक आजमा चुका था। अब उन्हें झोपड़पट्टी के तथाकथित मंदबुद्धि बच्चों पर भी आजमाना चाह रहा था।
मैंने एक योजना बनायी। मेरे आवास एफ-5 के बगल में ठीक उतना ही बड़ा आवास कुछ दिनों से खाली पड़ा था। उसमें कुल 22 बच्चे रह सकते थे। तौसीफ के स्कूल के प्रधानाध्यापक के सहयोग से, जहाँ झुग्गी-झोपड़ी के बच्चे पढ़ा करते थे, 22 बच्चों को एक महीने के 'सम्पूर्ण शिक्षा शिविर' के लिए मैंने आमंत्रित किया।
पहले मैंने बच्चों को भारी उद्योग निगम के स्कूल में जा कर संबोधित किया। उन्हें बताया कि शिविर में रात- दिन पढ़ना-लिखना भी पड़ेगा, और व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास के लिए अन्य गतिविधियाँ भी करनी पड़ेंगी, और इस प्रकार उन्हें 'बड़ा आदमी' बनने की आधारशिला तैयार करने में उनकी मदद की जायेगी। मैं खुद ही पढ़ाऊंगा-सिखाऊंगा। लेकिन सिर्फ 22 बच्चों को ही ले पाउँगा, क्योंकि उतनी ही जगह थी हमारे पास। बच्चे सिर्फ सातवीं, आठवीं, नवीं के होंगे, पांचवीं या छठी के नहीं।
प्रधानाध्यापक ने कहा कि वे चुन कर इन कक्षाओं के सबसे मेधावी या उच्च आइ-क्यू वाले बच्चों को देंगे। लेकिन मैंने कहा कि मैं ऊँची आइ-क्यू के बच्चों को नहीं बल्कि प्रयोग के लिए उन बच्चों को लेना चाहूँगा जिनके अंदर बड़ा बनने की उत्कट भावना हो।
'मगर भावना का पता कैसे चलेगा?' प्रधानाध्यापक ने मुझसे पूछा।
'जो बच्चे परसों सुबह मेरे घर 3 से 4 के बीच में सबसे पहले आएंगे, उन 22 बच्चों को मैं ले लूंगा', मैंने बताया।
'रात में 3 और 4 के बीच?', प्रधानाध्यापक हैरान हुए।
'नहीं, सुबह 3 से 4 के बीच!', मैंने कहा। 'उस समय वे ही बच्चे आएंगे जो बहुत ज्यादा उत्कट भावना रखते होंगे। उन्हीं पर प्रयोग करूँगा!', मैंने उनकी हैरानी दूर की।
सुबह 2 बजे ही मैं और मेरी पत्नी विनीता कोठी के बरामदे में आ कर बैठ गए। बाहर कंपनी के प्राइवेट हाउस गार्ड को बता रखा था की 3 से 4 के बीच बच्चों को प्रवेश करने दिया जाय, रोका नहीं जाय, और ठीक 4 बजे प्रवेश बंद कर दिया जाय।
3 बजे से बच्चों के आने का सिलसिला शुरू हुआ। 4 बजे से ठीक पहले एक बहुत ही मासूम दिखने वाला छोटा बच्चा दाखिल हुआ।
मैंने उससे पूछा, 'क्या नाम है? किस क्लास में पढ़ते हो?'
'तौसीफ अली। छठी में।', उसने बहुत धीमे स्वर में बताया।
'मगर छठी क्लास के बच्चों को तो मैंने मना किया था! तुम अभी बैठो। सुबह होने पर चले जाना। तुम्हें मैं नहीं ले सकता', मैंने कहा।
तौसीफ ने कुछ नहीं कहा, मगर उसकी आँखों से आंसू टपकने लगे।
मैं थोड़ा परेशान हुआ, क्योंकि तौसीफ मेरे कार्यक्रम के लिए बहुत छोटा और मासूम था, और मेरे शिक्षण कार्यक्रम में बौद्धिक सामग्री काफी थी। विनीता ने उसके आंसू देख कर कहा कि ले लीजिये, बच्चे को बहुत मन है। विनीता 'कैम्प मदर' नियुक्त हुई थीं और मेरे बाद प्रमुख शिक्षिका वे ही थीं, इसलिए उनकी सिफारिश नहीं मानना संभव नहीं था।
इस प्रकार तौसीफ अली को मेरे मन के विरुद्ध मेरी पाठशाला में प्रवेश मिल गया।
इस शिविर में अंग्रेजी भी पढाई जा रही थी। शुद्ध उच्चारण के साथ अंग्रेजी बोलने के लिए फोनेटिक्स का भी प्रशिक्षण दिया जाना था इस कैम्प में पेडागोजी या पढ़ाने के कई तरीकों पर मुझे कई प्रयोग करने थे। एक प्रयोग यह भी था कि क्या झुग्गी- झोपड़ी के तथाकथित 'लो आइ-क्यू' या मंद बुद्धि बच्चे बाकी चीज़ें पढ़ते हुए अंग्रेजी के नए 50 शब्द स्पेलिंग, उच्चारण और अर्थ के साथ रोज इस प्रकार याद कर सकते हैं कि महीने भर बाद या कभी भी भूलें नहीं। एक प्रयोग यह भी था कि क्या इन झोपड़- पट्टी के बच्चों को, जिन्हें बोलने वाली अंग्रेजी से कभी पाला नहीं पड़ा, मूल अंग्रेजी ध्वनियों को सिखाया जा सकता था। (क्रमशः)
पी के सिद्धार्थ
21 दिसंबर, 2016
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