Sunday, 22 January 2017

The Story of the Bhagwadgita 1

गीता कठिन क्यों लगती है?
कहानी जानने के बाद कठिन नहीं लगेगी!

लोग कहते हैं कि गीता एक कठिन ग्रन्थ है, और इसकी बातें समझ में नहीं आतीं.  यह कठिनाई बहुत-कुछ दूर हो जाएगी अगर हम  गीता पढ़ने के पहले गीता की कहानी और उसके पात्रों के नाम, जिनमें से कुछ शुद्ध संस्कृत में होने के कारण कुछ लोगों को अजीबो-गरीब लग सकते हैं, जान लें. साथ ही, हम उन असाधारण पात्रों के काम और चरित्र भी जान लें, जिनसे हमारा शायद पहले कभी ठीक से परिचय नहीं हुआ. ये पात्र और चरित्र साधारण मनुष्य नहीं हैं; ये ‘कॉस्मिक एक्टर्स और कैरेक्टर्स’ है, ब्रह्मांडीय चरित्र हैं, और गीता का रंगमंच कोई ख़ास देश या धरती नहीं है, बल्कि यह अनंत ब्रह्माण्ड या ‘कॉसमस’ है. यह उन ब्रह्मांडीय किरदारों की कहानी है; यह पूरे ब्रह्माण्ड की कहानी है, बहुत ही रोचक और लोमहर्षक कहानी. मगर उस बड़ी और अत्यंत रोचक कहानी पर आने के पहले हम उस एक  बहुत ही छोटी-सी  कहानी पर आते हैं जो धरती  के ही एक भू-भाग में  धटित हुई,  जिसने भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा गीता का ज्ञान देने के लिए मात्र एक तात्कालिक रंगमंच प्रदान किया. वह  कहानी बस इतनी-सी है :

गीता की छोटी कहानी :
अर्जुन का दारुण दुःख

हज़ारों साल पहले भारत के उत्तरी भाग में, आज की दिल्ली के करीब, अर्जुन नामक एक राज-पुरुष योद्धा ने अपने और अपने भाइयों के प्रति लगातार हो रहे घोर अन्यायों का समाधान शांति और सुलह से नहीं हो पाने के कारण अंत में अन्यायियों से युद्ध करने का निर्णय ले लिया. उस युद्ध में उसने ईश्वर के अवतार माने जाने वाले अपने परम सखा श्रीकृष्ण को भी अपने और न्याय के पक्ष में लड़ाई में उसकी मदद करने को आमंत्रित किया. युद्ध का निर्णय अर्जुन और उसके भाइयों  का  था, श्रीकृष्ण  का नहीं.  श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन का आमंत्रण स्वीकार तो कर लिया मगर युद्ध में स्वयं शस्त्र नहीं उठाने का फैसला भी लिया. अपनी सेना भी उन्होंने अर्जुन को नहीं दी. वे युद्ध में शरीक हुए मगर अर्जुन के सारथी या उसके रथ के चालक के रूप में : पूरी तरह निःशस्त्र!

अर्जुन एक अतुलनीय वीर योद्धा जरूर था मगर वह क्रूर या बर्बर नहीं था. वह एक बहुत ही नेक इन्सान था जिसके दिल में मानवीय संवेदनाएं थीं, और इसीलिए तो वह श्रीकृष्ण का अन्तरंग सखा भी था. लेकिन जब वह लड़ाई के मैदान में पहुँचा तो प्रतिपक्ष में अपने पूज्य गुरुओं और निकट सम्बन्धियों को सामने खड़ा देख कर वह विह्वल हो गया, रुआंसा हो गया. उसे लगने लगा कि इन लोगों मार डालने से तो बेहतर है कि वह भीख माँग कर अपना जीवन चला ले, मगर ऐसा पाप न करे कि युद्ध में उन गुरु द्रोण की ह्त्या कर दे जिन्होंने इतने प्यार से बचपन से उसे धनुष चलाने की कला सिखाई और दुनिया का सबसे बड़ा धनुर्धर बनाया; ऐसा अपराध न करे कि अपने परमपूज्य पितामह और महामानव भीष्म की ह्त्या का निमित्त बने. इसलिए वह ‘युद्ध नहीं करूंगा’, ऐसा कह  कर रथ  पर बैठ  गया.

जैसा कि कहा गया, युद्ध करने के लिए वह खुद  ही उद्यत हुआ था;  श्रीकृष्ण ने उसे युद्ध करने को नहीं कहा था. मगर युद्ध-भूमि में पहुँचने पर ऐन वक्त पर वह युद्ध से पलायन करना चाह रहा था. यह महान युद्ध तो अर्जुन और उसके भाइयों के प्रति लगातार हो रहे अन्याय, अपमान और ह्त्या के प्रयासों के विरुद्ध तो था ही : लेकिन यह युद्ध एक अत्यंत स्वार्थी,  अन्यायी और बर्वर व्यक्ति के शासन के अधीन प्रजा के न केवल संभावित बल्कि सुनिश्चित दुःख और पीड़ा के भी विरुद्ध था.

अर्जुन विश्व का सर्वश्रेष्ठ  धनुर्धर था, वीरता और  अच्छाई का प्रसिद्ध प्रतीक था. उसके किसी भी आचरण के दूरगामी परिणाम होने वाले थे क्योंकि  श्रेष्ठ जनों द्वारा किये गए आचरण का ही अनुसरण बाकी लोग करते हैं. और अब प्रश्न सिर्फ युद्ध करने या नहीं करने का नहीं रह गया था; इससे बड़े प्रश्न जो आन पड़े थे वे ये थे कि क्या कर्त्तव्य है और क्या अकर्तव्य; जीवन के लिए क्या कल्याणकारी है,  क्या अकल्याणकारी; क्या धर्म है, क्या अधर्म; जीवन के मकसद  क्या हैं; युद्ध से पैदा होने  वाले दारुण दुःख का और अन्य दुखों का स्थायी निदान क्या है? अर्जुन ने खुद ही ऐसे बड़े और दार्शनिक प्रश्न श्रीकृष्ण के सामने रख दिए थे :

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।

“मेरा कर्त्तव्य क्या है, धर्म क्या है, इस विषय में में भ्रमित हो गया हूँ; क्या ‘श्रेय’ या कल्याकारी है, यह मुझे बताइये; मैं आपका शिष्य हूँ; आपकी शरण  में हूँ; मेरा मार्गदर्शन कीजिये.“

अर्जुन जब सखा-भाव से शिष्य-भाव में आ गया तो कृष्ण भी गुरु-भाव में आ गए. और फिर उन्होंने शुरू की वह पूरी कहानी जिसको सुनने के बाद ही अर्जुन के उन महान प्रश्नों  का जवाब ठीक-ठीक मिल सकता था जो उसने पूछे थे : ‘धर्म क्या है, श्रेय  क्या हैं, कल्याणकारी क्या है’. जाहिर है कि ये प्रश्न सिर्फ अर्जुन  के तो थे नहीं; ये तो सभी मनुष्यों के प्रश्न अनंत काल  से रहे हैं जिनके उतर वे आये दिन हर अच्छी-बुरी घटना के बाद और दौरान तलाशने की कोशिश करते रहते हैं.

गीता की बड़ी कहानी : भाग १
सृष्टि के विचार से सृष्टि तक 

कहानी के मुख्य पात्र

परब्रह्म या ब्रह्म : परमात्मा का निराकार रूप जो  प्रकृति और सभी देवी-देवताओं से भी परे (पर) है.

परमपुरुष : परब्रह्म  या परमात्मा

आत्मा : परब्रह्म का वह अंश जो प्रकृति द्वारा बनाये  गए शरीर में स्थापित हो कर जीव का निर्माण करता है.

पुरुष : आत्मा (स्त्री-पुरुष सभी के भीतर स्थित  आत्मा)

विष्णु : निराकार ब्रह्म के साकार रूप जिन्हें जगत के पालन का दायित्व परब्रह्म या परमात्मा  द्वारा दिया गया है. इन्हें  सृष्टि के क्रम में  परमपुरुष के रूप में भी देखा जाता है.

कृष्ण : वासुदेव-देवकी नामक इंसानों के पुत्र; देखने में मनुष्य मगर वास्तव में निराकार परब्रह्म के साकार-सगुण रूप भगवान् विष्णु के अवतार. आने वाली कहानी या नाटक में वे एक साथ तीन भूमिकाओं में हैं, ‘ट्रिपल रोल’ में हैं : मनुष्य के रूप में ईश्वर के अवतार कृष्ण, श्रीविष्णु, और स्वयं परब्रह्म. कभी उनके मुख से अवतार कृष्ण बोलते हैं, कभी देवों के देव श्रीविष्णु और कभी स्वयं निराकार परब्रह्म. गीता में उनके द्वारा बोले गए ‘मैं’ के पीछे से कौन बोल रहा है, यह हमें हर सन्दर्भ में सावधानी से समझना पड़ेगा.  नहीं तो हम बात ठीक से समझ नहीं पायेंगे.

पुरुषोत्तम : परमेश्वर; श्रीकृष्ण

परा प्रकृति :  प्रकृति का वह अव्यक्त रूप जिससे व्यक्त भौतिक संसार की सृष्टि होती है, और जो परब्रह्म  के अधीन काम करती है. यह प्रकृति ‘जड़’ या अचेतन नहीं बल्कि चेतन है. 

अपरा प्रकृति : जो ‘जड़’ या अचेतन भौतिक प्रकृति सामने दिखती है, प्रत्यक्ष है, अनुभवगम्य है, और जो पराप्रकृति का प्रकट रूप है. 

माया : परमात्मा की जादुई शक्ति जिससे वे आत्माओं को, जो स्वयं परमात्मा के ही अंश या स्वरुप हैं, अपना मूल स्वरुप (ईश्वरत्व) भूल जाने पर मजबूर करते हैं. माया प्रकृति का ही दूसरा नाम है जो अपने  तीन गुणों से आत्मा को मोहित करती है और उसके स्वरुप के विषय में उसे भ्रमित करती है, और संसार-चक्र में उसे बांधती है.

ब्रह्मा : परमात्मा और प्रकृति द्वारा उत्पन्न किये गए एक महान देव जिन्हें ब्रह्माण्ड को रचने का काम परब्रह्म और पराप्रकृति द्वारा दिया गया है.

रूद्र : परमात्मा और प्रकृति द्वारा उत्पन्न किये गए एक अन्य महान देव जिन्हें ब्रह्मा के दिन के अंत में सभी जीवों की सृष्टि को अव्यक्त रूप में समेट लेने  का दायित्व परमात्मा द्वारा दिया गया है.

कहानी के कुछ अन्य तकनीकी शब्द

अवतार : परमात्मा जब धरती पर मनुष्य के रूप में स्वयं अपनी महान शक्तियों  के साथ उतरता है, अवतरित होता है तो ओउसे अवतार कहते हैं.. यों  तो सभी जीव परमात्मा के ही अवतार हैं, मगर व्यवहार में अवतार उन्हें ही कहते हैं जिन्हें परमात्मा की माया भ्रमित नहीं कर पाती और इसलिए जिन्हें यह याद रहता है कि वे ईश्वर के ही रूप हैं, और इसलिए जिनके पास ईश्वरीय शक्तियां प्रकट रूप में विद्यमान रहती हैं. श्री कृष्ण अब तक  धरती पर  हुए सभी अवतारों में सर्वोपरि हैं, क्योंकि उन्हें अपने ईश्वरीय स्वरूप का बोध हमेशा बना रहता है.

पुनर्जन्म : आत्मा, जो अमर है, एक शरीर का अंत होने पर दूसरे  शरीर में  फिर से जन्म लेती रहती है. यहाँ तक  कि नरक और स्वर्ग में भी वह अनंत काल तक नहीं रहती है; वहां से भी फिर ‘मृत्यु-लोक में उतरती है और फिर नए शरीर धारण कर पुनर्जन्म  का सिलसिला शुरू करती है.

भव-चक्र : संसार में बार-बार जन्म लेना  और मरना; ‘भव’ का मतलब  होता  है ‘होना’, यानी बार-बार (पैदा) होना. इसे ही अंगरेजी में ‘साइकिल ऑफ़ बर्थ एंड डेथ’ कहते है.


मोक्ष, निर्वाण या मुक्ति : जन्म-मृत्यु के  दुखमय चक्र, जिसे भव-चक्र भी कहते हैं, से मुक्ति, या पुनर्जन्म से मुक्ति, को मोक्ष या निर्वाण कहते हैं. पुनर्जन्म से मुक्ति मिल जाने के बाद जीव ऐसे लोक में स्थायी रूप से चला जाता है जहां परम आनंद होता है, और कभी कोई दुख नहीं होता. मगर स्वर्ग जाने को मोक्ष, निर्वाण या मुक्ति नहीं कहते, क्यों कि वहाँ से भी एक लम्बे समय तक सुख भोग कर फिर जीव को  पुनर्जन्म के दुखमय चक्र में उतरना पड़ता है और संसार के ‘बंधन’ में पड़ना  पड़ता है.